Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 73
________________ हित्वा लोकोत्तराचारं लोकाचारमुपैति यः । संयमो हियते तस्य निर्जरायां निबन्धनम् ||६ / १३|| अर्थात् - जो योगी लोकोत्तर आचार को छोड़कर लोकाचार को अपनाता है, निर्जरा का कारणभूत उसका संयम क्षीण हो जाता । (पृष्ठ १२० ) समाज का दुर्भाग्य यदि आप जैनधर्म और जैन समाज की सच्ची उन्नति देखना चाहते हैं तो आपको सदा शास्त्र-वाक्यों पर दृढ़ रहना आवश्यक है । परन्तु वर्तमान परिस्थिति कुछ ऐसी बन चुकी है कि शास्त्रानुसार मुनिचर्या का पालन एवं गृहस्थ धर्म का सच्चा उपदेश देनेवाला मुनि श्रेष्ठ नहीं माना जा रहा है, बल्कि वे मुनि श्रेष्ठ कहे जा रहे हैं जो मुनिचर्या की बलि चढ़ाकर भी अधिक से अधिक भीड़ एवं पैसा इकठ्ठा कर सकते हैं तथा खर्च कर सकते हैं । समाज में ज्ञान और संयम के बजाय भीड़ और पैसा इकठ्ठा करने की क्षमता के आधार पर साधुओं का मूल्यांकन किया जा रहा है, यह समाज का दुर्भाग्य ही समझना चाहिये । यथार्थ में तो पुण्यशाली वे नहीं जो भौतिक द्रव्यों को प्राप्त कर उनके उपयोग में ही अपने जीवन के अमूल्य क्षणों को नष्ट कर रहे हैं। वे जीव तो नवीन पापकर्म का ही बंध कर रहे हैं। पुण्यशाली वे हैं जो अपनी आत्मा को रत्नत्रय धर्म ( तप एवं त्याग) से पवित्र कर रहे हैं । (तत्त्वसार तत्त्वदेशना पृष्ठ ८) मिथ्यादृष्टि कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है - दोससहियं पि देवं जीवहिंसाइ संजुदं धम्मं । गंथात्तं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी ।। ३१८ ।। अर्थ - जो दोषसहित देवको, जीवहिंसा आदिसे युक्त धर्मको और परिग्रहमें फँसे हुए गुरुको मानता है वह मिथ्यादृष्टि है । भावार्थ - जो अपनेको साधु कहते हैं किन्तु जिनके पास हाथी, घोड़े (मोटर आदि वाहन), जमीन-जायदाद और नौकर-चाकर वगैरह विभूतिका ठाट राजा-महाराजाओंसे कम नहीं होता, ऐसे ११२९. कड़वे सच परिग्रही महन्तोंको धर्मगुरु मानता है, वह नियमसे मिथ्यादृष्टि है। (पृष्ठ २२५ - २२६ ) पात्रकेसरी स्तोत्र-४१ में कहा है जिनमत में वस्त्र, पात्र आदि परिग्रह का ग्रहण निषिद्ध है । असमर्थ लोगोंने सुखकारक मानकर उसके ग्रहण की कल्पना की है । शास्त्रों में स्पष्ट रूप से उल्लिखित इन बातों को जो स्वीकार नहीं करता उसके लिए भगवती आराधना में कहा हैपदमक्खरंच एवं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिद्धं । सेसं रोचंतो वि हु मिच्छादिट्ठि मुणेयव्वो ||३८|| अर्थात् - आगम में कहा एक भी पद वा अक्षर जिसे नहीं रुचता, शेष शास्त्र में रुचि - श्रद्धा होते हुए भी निश्चय से उसे मिथ्यादृष्टि ही जानना । (पृष्ठ ७६) उसके लिए लब्धिसार में कहा है - मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि । णय धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसो जहा जुरिदो ।। १०८ ।। अर्थ- मिथ्यात्व का वेदन करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला होता है । जैसे ज्वर से पीड़ित मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि धर्म (शास्त्रानुसारी उपदेश और आचरण) नहीं रुचता । ( पृष्ठ ९६ ) सर्प डस्यो तब जानिये रुचिकर नीम चबाय । कर्म इस्यो तब जानिये जिनवाणी न सुहाय ॥ जो सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे धर्म और जिनवचनमें सन्देह करता है वह मिध्यादृष्टि है । ( कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा- ३२३ पृष्ठ २२९) अश्रद्धानका एक कण भी आत्मा को दूषित करता है। (भगवती आराधना पृष्ठ ७६) आगम प्रमाण पर श्रद्धा होना ही सम्यग्दर्शन का लक्षण है । इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव शास्त्रों में संपूर्ण श्रद्धा रखता ही है । किन्तु जो मनुष्य शास्त्रों पर श्रद्धा करने के बजाय उनका खंडन करने का व्यर्थ प्रयत्न करता है उसे नरकायु का आस्रव होता है । तत्त्वार्थसार में कहा है जिनस्यासादनं साधु समयस्य च भेदनम् ।। ४ / ३२ ।। आयुषो नारकस्येति भवन्त्यास्रव हेतव: ।। ४ / ३४ ॥ - कड़वे सच १३०

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