Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 89
________________ सर्वात्मनां सकल भद्रकरं महांश्च भद्रं त्वमेव जिनशासन नायकं च । कल्याणकारक सुधेश जिनेश्वरं तं भक्त्या त्रियोगसहितेन जिनं नमामि ।।२०।। यस्यामला महिमया मघवा समूहा गायन्त्यघारि गुरु-देवयशस्य गीताः । भूत्वा प्रभावितमहं सततं हि तेन भक्त्या त्रियोगसहितेन जिनं नमामि ।।२१।। स्वस्याजितेन तपसा चरणेन शीघ्रं घातिक्षयादजितवीर्य सुनामवाप्तम् । तं श्रीनिवास पद पद्म-मजितवीर्य भक्त्या त्रियोगसहितेन जिनं नमामि ।।२२।। कल्याणकारिषु वरं स्तवनं पवित्रं त्रैलोक्यमङ्गल सुखालय कामदोहम् । कल्याणकं स्तवमिदं वितनूजिनानां गीतं मयाक्षयसुखाय सुवन्द्य वाचा ।।२३।। शक्रेण वन्दित विदेहधरा स्थितानां स्नेहादभीष्ट जिनसंस्तवनस्य तीव्रात् । सन्मङ्गलं स्तवनमेव सुवन्द्यसिन्धु रन्वर्थसंज्ञमुनिना रचितं सुभक्त्या ।।२४।। विघ्नौघनाशक जिनेन्द्रगणस्य दिव्यं सर्वात्मनः सकल मङ्गलकारकं च । भक्त्या विनिर्मितमिदं मम बालबुद्ध्या । स्तोत्रं भवेत् सुवरदं तु जिनप्रसादात् ।।२५।। विशेष ज्ञातव्य-श्रद्धा का क्या होगा? 'मुनिचर्या से संबंधित "कड़वे सच" इस प्रकार जन-जन में प्रकाशित होने से लोगों के मन में वर्तमान साधुओं के प्रति श्रद्धा नहीं रहेगी" यह शंका निराधार है। मेरा अनुभव है कि जिन-जिन लोगों ने खले दिल से मुझसे चर्चा की है उनके मन में सधे साधुओं के प्रति अतीव श्रद्धा उत्पन्न हुई है। श्रावकों को समीचीन ज्ञान प्राप्त होने से कही अपनी पोल न खुल जाये इस विचार से 'कड़वे सच' से वे ही भयभीत हो रहे हैं जो मुनिमुद्रा को विलासितापूर्ण जीवनयापन का साधन बना चुके हैं अथवा मोहनीय कर्म के तीव्र उदय से जिनकी बुद्धि मोहित होने से मुनिचर्या और उसकी गरिमा के प्रति असावधान वा उदासीन हैं । जिन्होंने मुनिमुद्रा को वैराग्यसहित अपनाया है ऐसे पापभीरू और ज्ञानी साधुओं ने तथा विवेकी गृहस्थों ने इस कृति का स्वागत ही किया है। वैराग्ययुक्त होकर संयमी जीवन स्वीकार करके भी अज्ञान से अथवा दूसरे साधुओं की देखादेखी जिन्होंने परिग्रह का उन्मार्ग अपनाया था ऐसे कई साधुओं ने सूचना दी है कि कड़वे सच पढ़ने से उनके भ्रम दूर होकर सम्यग्ज्ञान होने से अब उन्होंने नॅपकीन, मोबाईल आदि वस्तुओं का तथा दन्तमंजन आदि व्रतघातक क्रियाओं का त्याग किया हैं तथा शास्त्रोक्त आचरण करतेहए आगम के आलोक में सन्मार्ग पर चलने का सत्संकल्प किया है। जो सग्रन्थ को भी निर्ग्रन्थ मानते थे ऐसे अनेक गृहस्थ भी कड़वे सच पढ़ने से प्रबुद्ध होकर साधुओं को धन, नॅपकीन, मोबाईल आदि नहीं देने के लिए संकल्पबद्ध हए हैं। उन लोगों के मन में साधुओं के प्रति पहले अंधश्रद्धा थी; अब उसके स्थानपर "निर्ग्रन्थ'' मुनियों के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई है और वह श्रद्धा पहले से भी अधिक दृढ़ हुई है। ज्ञान के द्वारा यथार्थ वस्तुस्वरूप समझ में आने पर श्रद्धा भी यथार्थ बनती ही है। ___अब आवश्यकता है कि शेष साधुवर्ग और गृहस्थ भी उनका अनुकरण करके स्व-पर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होवे । - निन्थ मुनिसुवन्धसागर - कड़वे सच . .... ..... १६२ -- ... कड़वे सच . ..

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