________________
आदाय ब्रतमात्मतत्त्वममलं ज्ञात्वाथ गत्वा तपः सन्तोषो धनमुन्नतं प्रियतमा क्षान्तिस्तपो भोजनम् ।
क्षुत्तृष्णाभयसगमोहजनितां हित्वा विकल्पावलि यत्नायेन पुरा स देव सुविधि->षात् सदा पातु नः ।।
संसारार्णव दुस्तरोऽस्ति निचितैः कर्मः पुरा प्राणिना शक्यं नास्त्यपि पारगम्य इति वै भारेण भूत्वा गुरुम् ।
त्यागेनोभयभेदसङ्ग नितरां योऽभूदहो! नौरिख पापात् पात्वपरिग्रही स सुविधिः तीर्थंकरो निर्मलः ।।
शंखेन्दू सितपुष्पदन्तकलिकां यस्यास्ति दिव्यप्रभा देवेन्द्ररपि पूजिताक्षय सुखी दोपैर्विमुक्तात्मकः ।
दिव्यानन्तचतुष्टयैः सुरमया स्वर्मोक्षसन्दायकः सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्री पुष्पदन्तो जिनः।।
आवाहन जिनधर्म की प्रभावना का एक उपाय जिनधर्म के तत्त्व और उनका वास्तविक स्वरूप जन-जन तक पहुँचाना यह है जिनवाणी का अभ्यास एवं प्रसार सभी के लिए अत्यन्त कल्याणकारी है । इसलिए "समाज के विद्वानों, कार्यकर्ताओं तथा दानियों को ऐसा कार्य करना चाहिए, जिससे अल्प अथवा उचित मूल्य में यथार्थ तथा मनन करने योग्य साहित्य का प्रकाशन सम्भव हो सके तथा वह सर्वत्र सुलभता से उपलब्ध हो सके।"
सन्मति ग्रंथमाला की ओर से मराठी/हिंदी भाषा में कई ग्रंथ प्रकाशित करने की योजना बनाई है। इस कार्य में विपुल धनराशी की आवश्यकता है । जिनवाणी के प्रसार में सहभागी होने के इच्छुक श्रावकों से अनुरोध है कि वे इस सत्कार्य में अपनी ओर से यथासंभव आर्थिक योगदान दे, ताकि जन-जन हितकारी ग्रंथों का प्रकाशन किया जा सके तथा वे अल्प मूल्य में सबको उपलब्ध हो सके। हमारे यहाँ मुनिश्री सुवन्द्यसागर विरचित बहुचर्चित कृति
कड़वे सच उपासक संस्कार, दानोपदेश, हनुमान चरित्र, वृषभोद्धार कथा, इंद्र चरित्र, संत साधना, भद्रबाहू आख्यान, सम्यक्त्व कौमुदी एवं अन्य प्रकाशनों के ग्रंथ भी उपलब्ध हैं।
प्रकाशनाधीन ग्रंथ : तमसो मा ज्योतिर्गमय, मेरु-मंदर पुराण, आचारसार दानराशि भेजने के लिये अथवा ग्रंथ मंगवाने के लिये पता
* आत्मनंदी ग्रंथालय * | c/o श्री. सतीश शांतिलालजी बोराळकर, सुलतानपूर, ता. लोणार जि. बुलडाणा (महाराष्ट्र) मो. : ०९७६६१३१३५१
(Email-satjain.siddhapur@gmail.com) कड़वे सच ..................... १६३.
सर्वाङ्गाजनिता तथा सदसि या यातः समानां तर्ति कल्याणी मधुरा जगत्प्रियरमा स्रोतस्विनी ते सुगी ।
संख्यातीतसुरैर्नरैरपि तथा चित्रं! श्रुता प्राणिभिः सा सम्प्रत्यपि राति बुद्ध-सुविधेः हंसान् मतिं निर्मलाम् ।।
भक्ताभक्त-कृपाण-पुष्पनिवही लोष्टोऽथवा भास्कर साम्यं यस्य सदा विभाति जगति श्रेयस्कर भास्वरम् । नित्यं श्री सुविधिर्वसेन हृदि सदा साम्यश्च मे मानसि आकांक्षास्ति सुवन्यसागर मुनेः तस्या भवेत् पूर्णता ।।
- कड़वे सच..................... - १६४ -