Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 46
________________ क्रान्तिकारी सन्त तरुणसागर का कहना सत्य ही है कि वे लोग जो धर्म ( और मुनिवेष) के आड़ में अपना उल्लू सीधा करते हैं, धर्म के असली दुश्मन हैं। (कड़वे प्रवचन भाग १ पृष्ठ ४१) व्यापार में सलाह समाधान प्रश्न क्या मुनिराज व्यापारिक सलाह भी नहीं दे सकते ? भगवती आराधना (टीका) में कहा है जिस वचन में असि, मसि, कृषि, सेवा, वाणिज्य आदि षट्कर्मोंका उपदेश न हो ( मुनियोंको) वह वचन बोलना चाहिये । (१२६, पृष्ठ १६८) अर्थात् उनको व्यापार आदि का उपदेश नहीं देना चाहिये। क्योंकि खेती, आरम्भ आदि वचन कहने केलिए तथा धन कमाने केलिए जो अज्ञानी जीव दूसरे लोगों को उपदेश दिया करते हैं वह पापोपदेश नाम का पहला अर्थ है । ( प्रश्नोत्तर श्रावकाचार - १७ / २८-३१) मूलाचार में कहा है सव्वारंभणियत्ता जुत्ता जिणदेसिदम्मि धम्मम्मि । णय इच्छंति ममत्तिं परिग्गहे बालमित्तम्मि । । ७८४ ।। आचारवृत्ति - वे मुनि असि, मषि, कृषि, वाणिज्य आदि व्यापार से रहित हो चुके हैं, जिनेन्द्रदेव कथित धर्म में उद्युक्त है तथा श्रामण्य के अयोग्य बाल मात्र भी परिग्रह के विषय में ममता नहीं करते हैं, क्योंकि वे सर्व ग्रन्थ से विमुक्त हैं। (उत्तरार्ध - पृष्ठ ४८ ) संसार के प्रपंचों में साधुओं का सहभाग शोभा नहीं देता । जो कार्य जिसके योग्य है वह कार्य उसे (ही) करने देना चाहिए। कोई भी कार्य अपने पदानुसार ही शोभा देता है। इसलिए सर्व सावद्य के त्यागी निर्ग्रन्थ मुनियों से गृहस्थों के योग्य सांसारिक प्रपंचों की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए । क्षेत्रविकास और समाजसेवा - - - प्रश्न - • जगत् से संबंध तोड़ कर केवल स्वाध्याय, ध्यान और तप में लीन रहनेकी जैन मुनियों की वृत्ति स्वार्थी प्रतीत होती है। बदलते हुए जमाने को देखकर मुनियों को अपने मूलगुणों में और चर्या में परिवर्तन करके राजनीतिक मसले सुलझाने में तथा क्षेत्रविकास, संतनिवास तथा ग्रामविकास, कड़वे सच ७५ समाधान स्कूल- 5- कॉलेज चलाना आदि कार्यों में भूमिका क्यों नहीं निभानी चाहिए ? ध्यान और अध्ययन यह साधु का कार्य है । अन्य लौकिक बाते करना उसका कार्य नहीं है। मन्दिर बनाना, पंचकल्याणक कराना, रथ चलाना यह सब श्रावकों का कार्य है, साधुओं का नहीं । (स्वानंद विद्यामृत पृष्ठ ४१ (हिन्दी अनुवाद)) - भगवान महावीर स्वामी का स्वरूप धर्मशालादि बनवाना नहीं था । भगवान महावीर स्वामी का स्वरूप तो परम वीतराग-दशा, निस्पृहवृत्ति रूप था । जिन्हें स्वयं के पिता के गणराज्यपर भी मोह नहीं आया, उन्हें क्षेत्रों, भक्तों और नगरों के राग से भला कैसे विमोह होता ? तीर्थंकरों की परम्परा मठाधीशों (और क्षेत्राधिपतियों) की परम्परा नहीं है। तीर्थंकरों की विशद परम्परा गगन के सदृश त्यागभाव से भरी, निर्लेप एवं निर्दोष रही है । (स्वरूप - सम्बोधन परिशीलन - पृष्ठ ८७) इस संबंध में आ. शान्तिसागर महाराज का उदाहरण अनुकरणीय है- आचार्य महाराज ने किसी भी नये तीर्थ का निर्माण नहीं कराया । (प्रज्ञा प्रवाह पृष्ठ २२५) महाराज तो जगत् की तरफ पीठ दे चुके हैं। उनके ऊपर राजनीतिज्ञों सदृश उत्तरदायित्व का भार लाद नेताओं के समान उनके वक्तव्यों को प्राप्त करने की कल्पना करनेवाले भाई भूल जाते हैं कि ये आत्मोन्मुख मुनिराज दुनिया की झंझटों को छोड़ चुके हैं, जिन राजनीतिज्ञों को गौरव की वस्तु मान आज लोग उनसे प्रकाश पाने की आकांक्षा रखते हैं और उनके पथ पर चलने की इन गुरुओं से आशा करते हैं, वे बड़े अंधकार में हैं। ( चारित्र चक्रवर्ती पृष्ठ १४८) जिनदीक्षा लेने का उद्देश्य है सांसारिक विकल्पों से मुक्त होकर निर्विकल्प - वीतराग दशा प्राप्त करना। दीक्षा लेकर भी जिसके लौकिक विकल्प नहीं छूटे उसका दीक्षा लेना व्यर्थ है । - अष्टपाहुड में कहा है जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ।। मोक्षपाहुड ३१ ।। कड़वे सच ७६

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