Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 52
________________ मिथ्यादर्शन-मिथ्याचारित्र की ही जयन्ती है।... ध्यान रखिये बन्धओं ! मिथ्यादृष्टि की जयन्ती मनाना, मिथ्यादर्शन एवं मिथ्याचारित्र का पूज्यत्व स्वीकार करना है, जो कि संसार परिभ्रमण का ही कारण है । (समग्र खण्ड ४ (प्रवचन प्रमेय) - पृष्ठ ४३६) साधओं को किसी विशिष्ट तिथि अथवा समारोह से कोई लगाव नहीं होता है । वे तो ख्याति, लाभ, पूजा, भीड़ आदि की इच्छा से रहित होते हैं। जिसने (जन्मदिवस, दीक्षादिवस, कोजागिरी पूनम, नववर्षदिवस आदि) उत्सव की तिथि का परित्याग कर दिया है, जो सर्व प्रकार के परिग्रह से बिलकुल निस्पृह है तथा घर से रहित है ऐसा साधु ही अतिथि कहलाता है। (पद्मपुराण-२५/११३, भाग २ - पृष्ठ १४०) इस विषय में आचार्य पुष्पदन्तसागर का मन्तव्य ध्यान देने योग्य प्रश्न : वर्तमान में कुछ लोग कानजी भाई, चंपा बेन एवं मनिराजों की जन्म जयन्ती मनाते हैं । क्या यह उचित है ? उत्तर : जन्म जयन्ती तो सम्यग्दृष्टि की मनाना चाहिए । इस काल में कोई भी सम्यग्दर्शन को लेकर पैदा न होगा: सभी का जन्म मिथ्यात्व के साथ होता है । यदि आप जन्म जयन्ती का समर्थन करते हैं तो मिथ्यात्व का पोषण होता है । ... यह सब लौकिक प्रथायें हैं, आत्मपिपासु लोगों को जन्म जयन्ती से काफी दूर रहना चाहिए। (प्रश्न आज के - पृष्ठ २०१) इससे स्पष्ट होता है कि साधुओं के द्वारा अपने जन्मदिवस, दीक्षादिवस आदि स्वयं मनाना अथवा औरों के द्वारा मनवाना अनुचित हैं। अतः जन्म जयंती न मनाकर हमें अपनी शाश्वत सत्ता का ही ध्यान करना चाहिए । (समग्र खण्ड ४ (प्रवचन प्रमेय) - पृष्ठ ३२) तथा गृहस्थों को भी चाहिये के वह ऐसे अनावश्यक आयोजन करने के बजाय प्रतिदिन अपने घर के सामने साधुओं का पड़गाहन करके आहारदान करने का फल प्राप्त करें, इसी में उनका कल्याण है। यहाँ उल्लेखनीय है कि राम और सीता ने वन में रहते हुए भी मुनियों को आहार दिया था। __ तथा मुनियों को भी चाहिये कि वे अपने जन्मदिवस, दीक्षादिवस आदि मनाने के बजाय तीर्थकरों के कल्याणकों के दिन जो विशिष्ट क्रिया करने की शास्त्राज्ञा है, उसके अनुसार क्रिया करें । सर्वधर्मसंमेलन प्रश्न - दिगम्बर साधुओं के द्वारा सर्वधर्मसंमेलन आयोजित करने में भी क्या कोई दोष है ? समाधान - मूलाचार (टीका) में कहा है - तीर्थंकर वर्धमान के इस तीर्थ (जैन धर्म) से बढ़कर अन्य कोई तीर्थ विश्व में नहीं है ऐसा जो निश्चय करते हैं, उन साधुओं की लिंगशुद्धि होती है ।।७७८।। (उत्तरार्ध पृष्ठ ४६) आप्तमीमांसा में कहा है - तीर्थकृत् समयानां च परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ।।३।। अर्थात् - सभी धर्मों के प्रणेते तथा उनके शास्त्रों में परस्परविरोध पाया जाने से यह निश्चित होता हैं कि वे सब आप्त अर्थात् सच्चे देव नहीं हैं, उनमें से कोई एक ही जगत् का गुरु - सच्चा देव हैं। स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशाखाविरोधिवाक । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ।।६।। अर्थात् - वह (सच्चा देव) (हे जिनेन्द्र भगवान) तुम ही हो क्योंकि सिद्धान्तों से अविरुद्ध तुम्हारे तत्त्व किसी प्रकारसे बाधित नहीं होते हैं - सर्वत्र और सर्वकाल में सत्य हैं । आचार्य अकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक में कहते हैं - सभी देवताओं और सभी शाखों में बिना विवेक के समान भाव रखना बैनधिक मिथ्यात्व है। (८/१/२८, पृष्ठ ७४५) सूक्तिमुक्तावली शतक में कहा है - सभी धर्मों को समान कहता हुआ जो दुर्बुद्धि परमश्रेष्ठ जैनमत को अन्य मतों के समान मानता है वह मानो अमृत को विष के समान मानता है ।।१९।। (पृष्ठ १८) -..- कड़वे सच ८८ - कड़वे सच................ ८७.

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