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विवेक बुद्धि को प्राप्त करने का यहाँ यही प्रयोजन है कि निरन्तर पात्रदान दिया जावे । (पद्मनन्दि पञ्चविंशतिः-२/४१, पृष्ठ ८९)
सन १९३३ में आ. शान्तिसागर महाराज ने ब्यावर में वर्षायोग किया था । उस समय रायबहादुर सेठ टीकमचन्दजी सोनी गुरुभक्ति से आकर्षित होकर प्रतिदिन अजमेर से ब्यावर आकर आहार की विधि लगाते थे । आहार के उपरांत वे प्रतिदिन स्वधाम को वापिस जाते थे । ऐसी गुरुभक्ति करने वाले विरले ही भाग्यवान होते हैं । (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ २७९)
अहो ! पुण्यात्मा जन जिसके लिये दूसरे देशमें जाकर दान देते हैं, संयम के आश्रयभूत उस पात्रके स्वयं ही घर आ जानेपर तथा बहुत धनके रहनेपर भी जो मूर्ख दान नहीं देता, वह दर्बुद्धि मनुष्य स्वयं अपने आपको ठगता है-दुर्गतिमें डालता है । (सुभाषितरत्नसंदोह-१९/१८,पृष्ठ १४११४२)
जो गृहस्थ तपस्वियों के लिए प्रासुक दान नहीं देता है उसका अपना पेट भरनेवाले पशु से निश्चयत: कोई भेद नहीं है। ... जो गृहस्थ स्वयं घर आये हुए तपोधन साधु को भक्ति से पड़गाहता नहीं है वह कुबुद्धि हाथ में आये हुए चिन्तामणि रत्न को निश्चय से छोड़ता है। जो गृहस्थ भूख लगने के पूर्व साधुओं की आहार की वेला में उनके आगमन की प्रतीक्षा करता है, वह साधुओं का लाभ नहीं होने पर भी पुण्य से संयुक्त होता है। (अमितगति श्रावकाचार-९/२१,२७,३०)
इसका अभिप्राय यह है कि पड़गाहन करनेवाले सभी श्रावकों को आहारदान करने का फल प्राप्त होता है; साधु उनके चौके में आये अथवा नहीं भी आये, तब भी ।
तो भी कोई अज्ञानी, मूर्ख, कुबुद्धि, अपघाती ऐसा फल जानकर भी दान नहीं करता तो उसके लोभ की व अज्ञान की क्या पूंछना ? (ज्ञानानन्द श्रावकाचार – पृष्ठ ३८)
___ एक प्रेरक घटना है - सन १९५४ के (जयपुर) चातुर्मास में लगभग सौ चौके लग रहे थे । आहार के समय दीवान जी के मन्दिर से मील, दो मील तक चौके लग रहे थे । श्रावकों की भक्ति बहत ही विशेष थी।
इसी संदर्भ में एक दिन किसी मंदिर में एक मीटिंग हुई जिसमें ऐसी चर्चा चली कि - “यहाँ आचार्य देशभूषण जी महाराज का चातुर्मास होने से लगभग १०० चौके लग रहे हैं। संघ में साधु तो चार ही हैं - एक आचार्य महाराज, एक क्षुल्लक जी और दो क्षुल्लिकाएं । ये चार घर में ही पहँचते हैं । शेष लोगों के यहाँ फिजूल खर्च हो रहा है । पूरे चातुर्मास में इस तरह यह व्यर्थ का खर्च हो जायेगा । अतः यदि सभी चौके बंद करा दिये जायें और तीन चार ही चौके लगें तो क्या बाधा हैं? यह फिजूलखर्ची के पैसे बचाकर किसी अन्य कार्य में क्यों न लगा दिये जायें? इत्यादि ।"
यह चर्चा मुनिभक्त विद्वानों के समक्ष आई । तब उन्होंने भी आपस में मीटिंग कर यह जवाब दिया कि- "हम लोग आहारदान की भावना से शुद्ध चौका बनाते हैं । १० बजे अपने-अपने घर के बाहर खड़े होकर महाराज का पड़गाहन करने से तो हमें आहारदान का पुण्य मिल ही जाता है जो कि एक रुपया के हिसाब से व्यर्थ खर्च नहीं है । प्रत्यत महान पण्य बंध का कारण है तथा प्रतिदिन हम लोगों का पता नहीं कितने रुपये का फिजूल खर्च गृहस्थाश्रम में होता ही रहता है -इत्यादि । “ (मेरी स्मृतियाँ - पृष्ठ ३६)
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है -
गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते । वितरति यो नातिथये स कथं न लोभवान् भवति ।।१७३।। अर्थात् - अपने घर के सामने आये हुए रत्नत्रय गुणधारी एवं अमरसमान वृत्ति से दुसरों पर बोझ बने बिना आहार करनेवाले अतिथि मुनि को जो आहारादि दान नहीं करता है, निश्चय से वह लोभी क्यों नहीं है? अर्थात् घर के सामने आये हुए मुनि का पड़गाहन नहीं करने वाला मनुष्य निश्चय से लोभी ही है।
यदि कोई गृहस्थ संसार सागर से पार कराने वाले त्यागियों को अपने घर में आहार दिये बिना वापस भेजेगा तो वह संसार से कैसे पार हो सकता है? अर्थात् वह संसार से पार नहीं हो सकता । (धर्ममार्गसार -१७४, पृष्ठ १५८)
इस संसार में धन प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । जिनके पास धन
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