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इसलिए गणधराचार्य कन्थसागर कहते हैं - साधु को विषयभोगों से सर्वथा विरक्त एवं अलित और असंस्पृष्ट रहना चाहिये । साथ ही आरम्भ और परिग्रह से भी सर्वात्मना दूर ही रहना चाहिये । (रत्नकरण्ड श्रावकाचार (पूर्वार्ध)- पृष्ठ १४६)
ध्यान रखिये बन्धुओं ! जैनागम में सम्यक्चारित्र को ही पूज्य कहा गया है । इसके अभाव में तीन काल में भी पूज्यता नहीं आ सकती । (प्रवचन-प्रमेय - पृष्ठ ५६) आपके गुरु की पहचान आडम्बरों से नहीं है। आपके गरु की पहचान निरीहवत्ति एवं निस्पृहभाव से है। (इष्टोपदेश-सर्वोदयी देशना - पृष्ठ २४४) इसलिए आ. सुविधिसागर कहते हैं - ग्रंथकार मुनि की शोभा ज्ञान से नहीं अपितु चारित्र से मानते हैं । (सजनचित्तवल्लभ - पृष्ठ ४) क्योंकि चारित्र से रहित केवल बाह्य नम वेष मात्र से कोई मुनि नहीं कहलाता । (पृष्ठ
दुर्लभा ह्यन्तराद्रास्ते जगदभ्युजिहीर्षवः ।। ४ ।। अर्थात् - जो उपदेशक वाचाल होनेसे बहुत बोलते हुए भी अर्थहीन अथवा अनर्थकारी ही उपदेश करते हैं (जिनधर्म का उपदेश नहीं देकर कुमार्ग का कथन करते हैं, कुदेव-कुशास्त्र-कुगुरुकी प्रशंसा करनेवाली कथाएँ कहते हैं) वे तो प्रचुर मात्रामें प्राप्त होते हैं किन्तु जो स्वयं मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर दयार्द्रचित्त होते हए अन्य जीवोंका सच्चा कल्याण करनेवाला सदपदेश (जिनधर्मका कथन) करते हैं ऐसे सद्गुरु कठिनता से ही प्राप्त होते हैं। (पृष्ठ ४५) कहा भी है -
गुरवो बहवः सन्ति शिष्य वित्तापहारकाः ।
गुरवो विरला: सन्ति शिष्य सन्तापहारकाः ।। अर्थात् - शिष्यों के धन का अपहरण करनेवाले गुरु तो बहुत होते हैं । परन्तु शिष्यों के कर्म रूपी सन्ताप को दूर करनेवाले गुरु बहुत कम ही होते हैं।
अधर्मात्मा राह दिखाने वाले ही आज गुमराह कर रहे हैं । इस विपरीत परिस्थिति को देखते हए शब्दों के बादशाह आ. पुष्पदन्तसागर के अंतरंग की पीड़ा धधकते हुए अंगारों का आभास दिलाती हुई इस प्रकार प्रकट हुई थी - जो अपने आपको धर्मात्मा मानते हैं, साथ समझते हैं, तथा विषयभोगों के आकण्ठ में डूबे रहते हैं, वे संसार के सबसे ज्यादा खतरनाक लोग हैं। जो अपने आप को धर्मात्मा मानते हैं उन पर जरा-सा पानी का छीटा डाल दो, (तत्काल नॅपकीन से पोछ लेंगे) तब आपको पता चल जायेगा कि वे धर्मात्मा हैं या अधर्मात्मा ? जिनके अन्दर जरा भी सहन करने की क्षमता नहीं आयी है, जो भोगों से मुक्त नहीं हुए हैं उन्हें मैं धर्मात्मा कैसे कहूँ? (अध्यात्म के सुमन - पृष्ठ ४१-४२)
जो मुनिवेष धारण करके भी रागभाव को पुष्ट करते हैं, इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हैं, विषय-भोगों से आसक्ति करते हैं वे केवल वेषमात्र से ही मुनि हैं । ऐसे मुनियों के संसार का कभी अन्त नहीं हो सकता । (सजनचित्तवल्लभ - पृष्ठ ६)
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आचार्य तीर्थंकर वाणी के प्रसारक, अनेकान्त के प्रेमी तथा पापभीरु होते हैं । कही जिनवाणी की प्ररूपणा में स्खलन न हो जाये इसके लिये वे सतत सजग रहते हैं । अतः उनके वचनों को तीर्थकर की वाणी के समान सत्यतत्त्वप्ररूपक मानना चाहिये । (ज्ञानांकुशम् - पृष्ठ ९१)
हितशत्रु और हितैषी बृहत् द्रव्यसंग्रह में आचार्य का वर्णन किया है -
दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे ।
अप्पं परं च जंजड़ सो आयरिओ मुणी झेओ ।।५२।। अर्थात् - उस आचार्य का ध्यान करो जो दर्शनाचार और ज्ञानाचार की मुख्यता सहित वीर्याचार और श्रेष्ठ तपाचार में स्वयं भी तत्पर रहते हैं तथा अन्य (शिष्यों) को भी लगाते हैं।
इसलिए आ. सुविधिसागर कहते हैं - आचार्य बनने के बाद अपने रत्नत्रय के साथ-साथ दूसरों के रत्नत्रय को भी निभाना पड़ता है । (अक्षय ज्योति (अक्तूबर २००९) - पृष्ठ २०) आचार्य का आचरण देखकर ही शिष्य आचरण करते हैं । अतः निर्दोष आचारों का परिपालक आचार्य ही
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