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पद्धति सदोष है । दाता यदि ऐसे द्रव्यका दान देता है, तो यह परव्यपदेश दोष है । (श्रावकधर्मप्रदीप - पृष्ठ १९५)
कहा भी है - दूसरे दाता के देय द्रव्य का अर्पण कर देना अर्थात दूसरे के पदार्थ लेकर स्वयं दे देना (जैसे - वर्तमान में जो चौका लगाता है, अनेक लोग उसके चौके में सब्जियाँ, फल, दूध, घी आदि लाकर देते हैं और चौकेवाला व्यक्ति अथवा दूसरे लोग आहार देते हैं।) अथवा मुझे कुछ कार्य है,तू दान कर देना, यह परव्यपदेश है। अथवा यहाँ दूसरे दाता विद्यमान हैं, मैं (अकेला ही) यहाँ दाता नहीं हूँ अर्थात् आहारदान देनेवाले यहाँ दूसरे लोग भी तो हैं, मैं ही क्यों करूँ ? यह कह देना भी परव्यपदेश हो सकता है । (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार७/३६, पुस्तक ६ - पृष्ठ ६४६) तोता क्यों रोता? में कहा है -
पर पदार्थ को लेकर पर पर उपकार करना
दान का नाटक है,
चोरी का दोष आता है। इस विषय में गणिनी आर्यिका ज्ञानमती का उदाहरण मार्गदर्शक है - उनकी आहार व्यवस्था एवं संघ व्यवस्था में कभी किसी कमेटी का, मंदिर के दान का, चन्दे से इकट्ठा किया हुआ पैसा नहीं लिया जा सकता है ऐसा उनका कट्टर नियम है। (चारित्र चन्द्रिका - पृष्ठ १५७)
धनलाभ या किसी प्रयोजन सिद्धि की अपेक्षा से द्रव्यादिक के उपार्जन को नहीं त्यागता संता (आहारदान करने का) योग्य हो रहा भी दूसरे के हाथ से दान दिलाता है इस कारण यह परव्यपदेश महान् अतिचार है । जो कार्य स्वयं किया जा सकता है, किसी रोग, सूतक, पातक आदि का प्रतिबन्ध नहीं होते हए भी उसको दसरों से कराते फिरना अनुचित है। (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार-७/३६, पुस्तक ६ - पृष्ठ ६४६)
अथवा स्वयं आहार न देकर नौकर-चाकरों से दिलाना (तथा नौकरों से बनवाकर स्वयं देना) यह अनादर नामक अतिचार का ही
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रूपान्तर है । (रत्नकरण्ड श्रावकाचार-१२१, पृष्ठ २२१) इसलिए (चौका अथवा) भोजन बनाने के लिये नौकर मत रखना । (कछ तो है - पृष्ठ २३०)
दानशासन में कहा है - दासीके (अथवा नौकरोंके) हाथसे दिलाया हुआ आहार दाताके लिये दोषकारक ही है । (६/१३, पृष्ठ १३०)
प्रबोधसार में कहा है - जो दान नौकर-चाकरों के हाथसे दिलाया जाता है वह तामस दान कहलाता है। (३/५१, पृष्ठ २०५)
यशस्तिलक चम्पू में कहा है - जो कार्य दूसरों से कराने लायक हैं, या जो भाग्यवश हो जाते हैं उनको छोड़कर (आहारदान, साधु के साथ विहार, देवपूजा आदि) धर्म के कार्य, स्वामी की सेवा और सन्तान की उत्पत्ति को कौन समझदार मनुष्य दूसरें के हाथ सौपता है ? जो अपना धन देकर दूसरों के द्वारा धर्म कराता है, वह उसका फल दसरों के लिए ही उपार्जित करता है इसमें सन्देह नहीं है । (उत्तरखण्ड ७५५-५६)
मूलाचार प्रदीप-४४० के अनुसार - दास-दासी अर्थात् नौकरों से दिलाया हुआ आहार ग्रहण करने से वह मुनि भी दायक दोष से दषित हो जाता है । (पृष्ठ ६८) अत: मुनियों को भी नौकरों के हाथ से दिलाया जानेवाला आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये ।
कौन कब दे? वर्तमान में और एक बहत बड़ा दोष सर्वत्र हो रहा है-पंचायत वा आहार समिति के द्वारा श्रावकों को चौका लगाने के लिए दिवस नियत किये जा रहे हैं। यह पद्धति भी आगमविरुद्धही है। कई जगह पंचायत द्वारा चौके लगाने की क्रमवार सूचि बनाई जाती है । उस सूचि के अनुसार गृहस्थों को नियत दिन चौके लगाने ही पड़ते हैं अन्यथा उन्हें दंडित किया जाता है । इस सम्बन्ध में मूलाचार प्रदीप में कहा है -
संयतानागमान् दृष्ट्वा राजचौर्यादिजाभयात् ।
जनैर्यद्दीयते दानमाच्छेद्य दोष एव सः ।।३९८।। अर्थ - मुनियों के आगमन को देखकर राजा या चोरों के भय से (पंचायत अथवा आहार समिति के भय से) जो लोगों द्वारा मुनियों को दान दिया जाता है, उसे आच्छेद्य दोष कहते हैं । अर्थात् यदि मुनियों को आहारदान
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