Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 53
________________ कुचैत्य (कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु) आदि की प्रतिष्ठा (स्तुति, पुरस्कार) आदि करना यह मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा होनेवाली मिथ्यात्व क्रिया है। (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार-६/५-३, पुस्तक ६ - पृष्ठ ४५५) मिथ्यात्व क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया के साधन और मिथ्यात्व के कारणों में प्रविष्ट मिथ्यादृष्टियों की 'यह उत्तम है, श्रेष्ठ है अथवा तू बहुत अच्छा करता है' आदि शब्दों से प्रशंसा करके उन्हे मिथ्यात्व में दृढ़ करना मिथ्यादर्शन क्रिया है। (तत्त्वार्थवार्तिक-६/५/११ - पृष्ठ ५१०) जो मिथ्याष्टियों की प्रशंसा-संस्तवन करने वाला मूढदृष्टि है, वह (जिन)शासन की प्रभावना तो कर ही नहीं सकता। (तत्त्वार्थवृत्ति-७/१३, पृष्ठ ५३३) अपितु भोले-भोले लोग उसके कारण अन्यमतियों को श्रेष्ठ मान कर भ्रष्ट जरूर हो सकते हैं । इसलिए मूलाचार प्रदीप में कहा है - कुदेव-लिङ्गी-पाषण्डि मठबिम्बानि भूतले । कुतीर्थानि कुशास्त्रानि षडायतनानि च ।।६१३।। मिथ्यात्ववर्द्धकान्येव स्थानानि प्रचुरान्यपि । पश्येजातु न सदृष्टि ग्रत्न मलशंकया ।।६१४।। अर्थ : सम्यग्दृष्टि पुरुषों को कुदेव, कुलिंगी, पाखंडी, उनके मठ, उनके प्रतिबिंब, कुतीर्थ, कुशास्त्र, छहो अनायतन आदि कभी नहीं देखने चाहिये। क्योंकि ये बहुतसे स्थान मिथ्यात्व को बढ़ानेवाले हैं । इसलिये सम्यग्दर्शन रूपी रत्न में मल उत्पन्न होने की शंका से डर कर ऐसे स्थान कभी नहीं देखने चाहिये । (पृष्ठ ९८-९९) जो यहाँ (कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु आदि) कुतीर्थों में गमन करते हैं वे अशुभ अंगोपांग नामकर्म का बंध करके परभव में लंगड़े होते हैं । (पार्श्वनाथ चरित्र-२१/६०-६१, पृष्ठ २७९) मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी कषायों के नोकर्मद्रव्य अर्थात् उदय में सहायक द्रव्य छह अनायतन हैं । (गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७४,७५- पृष्ठ ४३) इसलिए राग-द्वेष से लिप्त कुदेवों के उपासक तथा सांसारिक सुखों में आसक्त परिग्रहवान् कुलिंगियों की संगति करना मिथ्यात्व का पोषक है। उच्छाहभावणासंपसंससेवा कुदंसणे सद्धा । अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणधम्मं ।।चारित्रपाहड १३।। कड़वे सच .............................-८९ - अर्थात् - अज्ञान और मोहके मार्गरूप मिथ्यामतमें उत्साह, उसमें उसकी भावना, प्रशंसा, सेवा और श्रद्धा करता हआ पुरुष जिनधर्म-सम्यक्त्व को छोड़ देता है। इसलिए असंयमी और विधर्मी लोगों के साथ संसर्ग और गृहस्थ जैसे सुखों में (एवं कार्यों में) आदर ये बातें आचार्यों और मुनियों के लिए निषिद्ध कही गई हैं, किन्तु जो आगम की अवज्ञा कर इन्हीं (असंयमी लोगों से मेलजोल, नेताओं को तथा विधर्मी जनों को- मिथ्यावृष्टि साधुओं को बुलाना आदि) बातों को श्रेयस्कर मानते हैं एवं इनमें ही अहर्निश अनुरक्त रहते हैं वे स्वच्छन्द कहे जाते हैं । (मरण कण्डिका - पृष्ठ ११०) शास्त्रों में ख्याति-पूजा-लाभ की इच्छा से भरे ज्ञानी को अज्ञानी, मूढ कहा है । (अमृत कलश - पृष्ठ ७५) __ पत्थर की नाव सदृश ऐसे आगमविरोधी स्वच्छन्द साधु स्वयं संसार समुद्र में डूबते हैं और अन्य को भी डुबोते हैं। (मरण कण्डिका पृष्ठ - ५५७) सो ही छहढाला में कहा है - जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोर्षे चिर दर्शनमोह एव । अन्तर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अम्बर से सनेह ।।२/९।। धारै कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरु जन्म जल उपल नाव ।...||१०।। ऐसे मुनि के विषय में आपाहुड (टीका) में कहा है - जिनेन्द्रदेव का उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन से हीन मनुष्य को नमस्कार (नमोस्तु) नहीं करना चाहिये। धर्म की जड़स्वरूप सम्यग्दर्शन ही जिसके पास नहीं है वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है? और जो धर्मात्मा नहीं है वह वन्दना या नमस्कार का पात्र किस तरह हो सकता है? (नहीं हो सकता।ऐसे मिथ्यादृष्टियों के लिये दान देनेवाला दाता मिथ्यात्व को बढ़ानेवाला है। (दर्शनपाहुड गाथा २ की टीका - पृष्ठ ४) ऐसे अज्ञानी मिथ्यादष्टि जीवों ने अपने क्षायोपशमिक ज्ञान को कुशास्त्रों के अध्ययन एवं कुकविताओं के सृजन में लगाकर आत्मा का घात किया है । ....वे जीव स्व-पर का अहित कर लेते हैं जो कु शास्त्रों का श्रवण कर रहे हैं व करा रहे हैं। (समाधितंत्र अनुशीलन - पृष्ठ १४) कड़वे सच ....................... ९० -

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