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(१) आचेलक्य- सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग, (२) केशलोच, (३) शरीर से निर्मोहता और (४) पीछी । इन चार बाह्य चिह्नों से सहित मुनियों के ५ महाव्रत, ५ समितियाँ, ५ इन्द्रियनिरोध, ६ आवश्यक तथा केशलोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभुक्त ये ७ विशेष गुण ऐसे २८ मूलगुण और १२ तप तथा २२ परीषह जय ऐसे ३४ उत्तरगुण होते हैं । पं. रतनचन्द भारिल्ल लिखते हैं- "इन मूलगुणों का निर्दोष पालन ही दिगम्बर मुनिराज की बाह्य पहचान है । उत्तरगुण भी यथाशक्य पालते ही हैं, पर उत्तरगुण मुनि की कसौटी नहीं होती ।" ( चलते फिरते सिद्धों से गुरु पृष्ठ ६३ )
पूज्यता का आधार
२८ मूलगुण पालने वाले मुनियों को जाने बिना ही उनकी उपेक्षा और अनादर करनेवाले अज्ञानी लोगों को उनकी भूल का अहसास दिलाते हुए पं. रतनचन्द भारिल्ल समझाते हैं -
मुनिराज २८ मूलगुण एवं १३ प्रकार के चारित्र का निर्दोष पालन करते हैं, अतः वे श्रावकों द्वारा वन्दनीय हैं । यद्यपि मुनि को वन्दन, नमन आदि कराने का भाव ही नहीं, तथापि जो (ऐसे) सच्चे गुरुओं को वन्दन नहीं करता, उसे गुरु का अवर्णवाद करनेवाला होने से दर्शनमोह ( मिथ्यात्व) का बंध होता है। (चलते फिरते सिद्धों से गुरु - पृष्ठ ७९)
अट्ठाईस मूलगुण आदि सभी गुणों की पूर्णता होने पर भी जो पुरुष यह छल करता है एवं सन्देह करता है कि अमुक मुनिराज को सम्यग्दर्शन नहीं है और सम्यग्दर्शन के बिना उन्हें कैसे नमस्कार किया जाये तो वह मुनित्व से ही इन्कार करनेवाला है; क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि अपने स्थूलज्ञान से किसी के सम्यग्दर्शन का पता लगाया जा सके ।
अतः सम्यग्ज्ञान जैसे अमूर्त अतीन्द्रिय तत्त्व का पता किये बिना मुनिराज को नमस्कार नहीं किया जायेगा तो फिर लोक के सभी साधु वन्दनीय नहीं रह सकेंगे । इसीलिए मुनिराज में जहाँ जिनोपदिष्ट
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व्यवहारधर्म की परिपूर्णता पायी जाये तो वे अवश्य ही वन्दन के योग्य होते हैं; क्योंकि व्यवहारी की गति व्यवहार तक ही होती है । कोई कारण न दिखायी देने पर भी किसी के चारित्र के संबंध में सन्देह करना चारित्र का बहुत बड़ा अपमान है । ( पृष्ठ ८० ) इस प्रकार से - तपस्विजनोंके सम्यक् चारित्रमें दूषण लगाना एवं उनकी निन्दा करने से कषायवेदनीय तथा जुगुप्सा के बंध कारण है । (हरिवंशपुराण- ५८/ ९८, १०४)
जिसको बालबोध एवं सामान्य श्रावकाचार का भी ज्ञान नहीं है, वह भी मुनियों को निकट से देखे जाने बिना ही धड़ल्ले से उनको द्रव्यलिंगी और चारित्र से रहित कह देता है। अरे सच्चा साधु होना तो सिद्ध होने जैसा गौरव है | इस गरिमायुक्त महान पद के साथ खिलवाड़ करना अपने जीवन और जगत के साथ खिलवाड़ करना है। ऐसा करनेवाला व्यक्ति वात्सल्य, उपगूहन और स्थितिकरण तो दूर, अपने प्राथमिक कर्तव्य को भी निश्चय से नहीं जानता है। क्योंकि भावों की
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स्थिति केवलीगम्य ही हुवा करती है। बाहर से तो द्रव्यलिंग ही दिखता है और बाह्य चर्या भी दिखती है, उसी के अनुरूप पूज्यता- पूजा की व्यवस्था चलती है । (प्रवचन निर्देशिका - पृष्ठ १६०)
उन साधुओं को किसी से नमस्कार कराने की अपेक्षा नहीं होती, परन्तु मोक्ष की प्राप्ति के लिये मुमुक्षुओं के द्वारा वे स्वयं ही नमस्कार करने योग्य होते हैं, मोक्षार्थी उन्हें स्वयं ही वन्दना करते हैं । (चलते फिरते सिद्धों से गुरु पृष्ठ ४० ) क्योंकि अष्टपाहुड में कहा है -
अमराण वंदियाणं रूवं दट्ठूण सीलसहियाणं । जे गारवं करंति य सम्मत्त विवज्जया होंति ।। दर्शनपाहुड २५ ।। अर्थात् - जो देवों से वंदित तथा शील से सहित तीर्थंकर परमदेव के (द्वारा आचरित मुनियों के नग्न) रूप को देखकर गर्व करते हैं (उनको प्रणाम आदि नहीं करते हैं) वे सम्यक्त्व से रहित (मिथ्यादृष्टि) हैं । (पृष्ठ ४३-४४)
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