Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ स्वच्छन्दतापूर्वक हंसी-मजाक नहीं करनी चाहिये । (यशस्तिलक चम्पू-८/३६०, उत्तरखंड - पृष्ठ ४५४) अत: आनन्दयात्रा का आयोजन मुनि और गृहस्थ दोनों के लिए दोष ही है क्योंकि साधुओं को कभी भी हास्यकथा नहीं करना चाहिए ऐसी शास्त्राज्ञा है । न हि जादुगर की वृत्ति होना चाहिए । गीत, संगीत, नृत्य-गायन के त्यागी होते हैं दिगम्बर धन (मुनि) कृत-कारित-अनुमोदना से । (समाधितंत्र अनुशीलन - पृष्ठ २७९) ___एक बार दुर्ग चातुर्मास (सन १९८०) के समय वहाँ के समाज के बच्चों-बच्चियों द्वारा धार्मिक सांस्कृतिक कार्यक्रम रात्रि में चल रहा था । उसी समय कुछ महाराज जब छत पर लघुशंका के लिए आये, तो देखा यहाँ से प्रोग्राम दिख रहा है, बस क्या था वे वही बैठ गये, प्रोग्राम देखने । कुछ समय पश्चात् पूज्य आ. श्री सन्मतिसागरजी महाराज भी आये, उन्होंने देख लिया - ये लोग छुपकर प्रोग्राम देख रहे हैं, तब तो कुछ नहीं कहा, धीरे से निकल कर कमरे में आ गए । वे महाराज लोग भी पूरा प्रोग्राम देख कर कमरे में चले गये। सुबह हुई ... दैनिक स्तुति-पाठ के पश्चात् पूज्य आचार्य श्री ने गंभीर वाणी में कहा, "कल रात्रि में बिना आज्ञा अनुमति के कार्य कैसे हुआ, संघ का अनुशासन था कि सांस्कृतिक प्रोग्राम साधक जन नहीं देखते, फिर भी छुप-छुप कर प्रोग्राम देखा गया । शर्म नहीं आई आपको, यही सब देखना था तो दीक्षा क्यों ली, घर क्यों छोड़ा, देखते रहते घर में बैठकर ।" (तपस्वी सम्राट - पृष्ठ २६-२७) प्रश्नमंच आदि में भी पुरस्कार अथवा अन्य किसी रूप में पेन, फोटो, मालाएँ अथवा अन्य वस्तुएँ बाँटने-बँटवाने से पूर्व पूज्यपादाचार्य के मन्तव्य पर ध्यान देना आवश्यक है। इष्टोपदेश में वे कहते हैं - - कड़वे सच ..................-८३ - त्यागाय श्रेयसे वित्त-मवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामीति विलिम्पति ।।१६।। अर्थात् - दान करने के लिए काम आयेगा ऐसा सोचकर जो (धन, पेन, फोटो, मालाएँ आदि) द्रव्य का संग्रह करता हैं, वह मानो बाद में स्नान करूँगा ऐसा विचार कर अपने शरीर को कीचड़ से लिप्त करता है। इसलिए साधुओं को बाँटने के लिए भी फोटो, मालाएँ आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। समाधितन्त्र में कहा भी है - बहिस्तुष्यन्ति मूढात्मा पिहित ज्योतिरन्तरे । तुष्यत्यन्तः प्रबुद्धात्मा बहिावृत्तकौतुकः ।।६०।। अर्थात् - मूढ़ बहिरात्मा बाह्य परपदार्थों में और विवेकी अन्तरात्मा आत्म स्वरूप में ही सन्तुष्ट रहता है। नकली भक्त आ. विरागसागर द्वारा कथित एक उद्बोधक घटना है - एक बालक एक बार मेरे पास आया। उसने कहा- महाराज मुझे पेन दे दो। मैंने कहा- भईया, पेन की मेरे पास दुकान नहीं है। दुकान होती तो मैं तुम्हें पेन दे देता। उसने कहा - रखे होंगे। मैंने कहा - मैं अपरिग्रही हूँ। मैं अनावश्यक सामग्री नहीं रखता हूँ, मात्र संघ साधना की दृष्टिकोण से उतना ही रखता हूँ जितना शास्त्रों में रखने योग्य कहा है। उसने कहा - आपके पास रखे नहीं है तो कोई बात नहीं है । मैं पेन का एक पैकेट लाकर रखे दे रहा है, तो आप बाँट देना। मैंने कहा - मैं बाँटने का काम क्यों करूँ? नौकरी क्यों करूँ? आखिर में मुझे क्या लेना तुमसे, कि जो मैं तुम्हारी सामग्री बाँटने के लिए बैतूं? मैं नहीं बाँटेगा। बाँटना है तो अपने हाथ से बाँटो। हाँ, अपने ...- कड़वे सच .... . . . . . . ८४ ..

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91