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दुनिया के कार्यों के लिए यह श्रमणत्व नहीं।। (श्रुताराधना - पृष्ठ ५१) मुनिदीक्षा लेने के बाद भी जिसके लौकिक कार्योंके विकल्प बने रहते हैं उसके लिए कहना चाहिए -
मक्का गये मदीना गये, बनकर आये हाजी ।
आदत गई न इल्लत गई, फिर पाजी के पाजी।।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा (टीका) में कहा है - (स्कूल-कॉलेज आदि का निर्माण तो दूर) देवपूजा, चैत्यालय, संघ और यात्रा वगैरह के लिये भी मुनियोंका आरम्भ करना ठीक नहीं है। तथा गुरुओंके लिये वसतिका बनवाना, भोजन बनाना, सचित्त जल, फल, धान्य वगैरहका प्रासुक करना आदि आरम्भ भी मनियोंके लिये उचित नहीं है, क्योंकि ये सब आरम्भ हिंसाके कारण हैं । (४०६, पृष्ठ ३०८)
मूलाचार में कहा है - पुढवीय समारंभं जलपवणग्गीतसाणमारंभं ।
ण करेंति ण कारेंति य कारेंतं णाणुमोदंति ।।८०४।। आचारवृत्ति - पृथ्वी का खोदना, उसमें कुछ उत्कीर्ण करना, उसका चूर्ण आदि करना यह सब समारम्भ कहलाता है। ऐसे ही जल का सिंचन करना, फेकना, हवा का बीजन करना अर्थात् पँखे से हवा करना, अग्नि को जलाना, त्रस जीवों का मर्दन करना-उन्हें त्रास आदि देना, इन क्रियाओं को धीर मुनि न करते हैं न कराते हैं और करते हुए को न अनुमति ही देते हैं। (उत्तरार्ध-पृष्ठ५८)
इसलिए मूलाचार प्रदीप में कहा है - मत्वेति तत्समारम्भो, जातु कार्यो न योगिभिः ।
स्वेन वान्येन मुक्त्याप्त्यैः, चैत्यगेहादि कारणैः ।।६४।। यहीं समझकर मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये स्वयं वा दसरे के द्वारा जिनालय आदि बनवाकर भी पृथ्वी का समारंभ नहीं करना चाहिए । (पृष्ठ ९)
इसका कारण अष्टपाहुड में कहा है - जिस प्रकार तत्काल का उत्पन्न हुआ बालक निर्विकार और नग्न रहता है उसी प्रकार जिनदीक्षामें निर्विकार रूप धारण किया जाता है। जिस प्रकार सर्प अपना बिल स्वयं
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नहीं बनाता, अपने आप बने हुए अथवा किसीके द्वारा बनाये हुए बिलमें निवास करता है उसी प्रकार जिनदीक्षा का धारक साधु अपना उपाश्रय स्वयं न बनाकर पर्वतकी गुफा तथा वृक्षकी कोटर आदि अपने आप बने हए अथवा किसी अन्य धर्मात्मा के द्वारा बनवाये हए मठ आदि में निवास करता है । (बोधपाहड-५१, पृष्ठ २२३-२२५)
इसलिए मुनि पुलकसागर कहते हैं - वह (जैन संत) अपने रहने के लिए मठ, मंदिर, आश्रम नहीं बनाता है न ही उन पर स्वामित्व रखता है। (ऐसे भी जिया जाता है - पृष्ठ ६६) क्योंकि किसी भी प्रकार के आरंभ कार्य में दसवीं प्रतिमाधारी श्रावक भी अनुमति नहीं दे सकता। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है -
अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे ऐहिकेषु कर्मसु वा ।
नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरत: स मन्तव्यः ।।१४६।। अर्थात् - जो धन-धान्यादिक परिग्रह तथा इस लोक संबंधी विवाह, अर्थार्जन, खुदाई, बांधकाम आदि आरंभ कार्यों में अनुमति नहीं देता है तथा इष्टानिष्ट परिणति में समबुद्धि रहता है, उसे अनुमतित्याग प्रतिमा का धारक श्रावक जानना चाहिए।
इससे स्पष्ट होता है कि साधुपद ग्रहण करके लौकिक कार्यों में रममाण होने से तो दसवीं अनुमतित्याग प्रतिमा का भी पालन नहीं हो सकता हैं। पुन: जो पर के विकल्पों में फंसकर अपना स्वयं का कल्याण करने में ही प्रयत्न नहीं करता है उसका कैसे विश्वास कर सकते है कि वह दूसरों का कल्याण कर पायेगा?
आनन्दयात्रा प्रश्न- लोगों को आकर्षित करने के लिए साधुओं के द्वारा आनन्दयात्रा अथवा प्रश्नमंच आदि आयोजित करके अथवा अन्य समय भी दर्शनार्थियों को पेन, माला, फोटो आदि वस्तुएँ बाँटना/बँटवाना कहाँ तक उचित है ?
समाधान - आदिपुराण में कहा है-मोक्षमार्गी की साधना में अपनी ज्ञानसंपत्ति को लगाने वाले मनीश्वरों को जनसमुदाय को प्रसन्न करने से अपनी इष्टसिद्धि प्रतीत नहीं होती । (९/१६२) मूलाचार (८३८)
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