________________
मात्र २४ घंटे आहार नहीं करने को उपवास मानने से तो साधुओं का प्रतिदिन ही उपवास मानना होगा । परन्तु ऐसा नहीं है। अतः जिस दिन केशलोच करते है उस दिन सुबह अथवा दोपहर किसी भी समय साधु आहार ग्रहण नहीं कर सकते ।
परिवार और संस्था
प्रश्न क्या साधु अपने परिवारजनों का निर्वाह अथवा अपने गाँव का विकास करने के लिये संस्था आदि स्थापन कर सकते हैं ? समाधान- गृहत्याग का अर्थ मात्र घर में नहीं रहना इतना सीमित नहीं है। गृहत्याग का अर्थ घर तथा घरवालों के प्रति मोह का त्याग करना है। इतने बड़े-बड़े तीर्थंकर चक्रवर्ती अपना सारा धन, वैभव, कुटुम्ब - परिवार छोड़ कर मुनि बने, फिर पुनः उस ओर नहीं देखा, कभी घर का समाचार नहीं पूछा। क्योंकि दिगम्बर मुनि अपने अतीत से कोई सम्बध नहीं रखते । ( प्रश्न आज के पृष्ठ १४)
यह मेरा बैरी था, मित्र था, पिताजी थे, मेरे भाई थे या और कोई अन्य संबंधी; अब कोई संबंध नहीं - सब छूट गया। इस नग्नावस्था ( मुनिपद) के साथ तो मात्र पूज्य पूजक संबंध रह गया है। इसके उपरान्त भी यदि अतीत की ओर दृष्टि चली जाती है, राग-द्वेष हो जाते हैं, परिचर्या में नहीं लगता है तो उसे मिथ्यादृष्टि कहा है । (प्रवचन- प्रमेय - पृष्ठ ७२ )
जो साधु स्वाध्याय-तप-चारित्र में आलसी और प्रसिद्धि पाने में तथा धन आदि इकट्ठा करने में तत्पर रहकर लोकरंजना करता है वह स्वयं रत्नत्रय में उदासीन होने से गृहस्थों का कैसे कल्याण कर सकता है ? नहीं कर सकता ।
मरण कण्डिका में कहा भी हैं
-
-
विध्यापयति यो वेश्म, नात्मीयमालसत्वत: ।
पर वेश्म शमे तत्र, प्रतीतिः क्रियते कथम् ।। २९२ ।।
-
अर्थात्- जो आलस्यवश जलते हुए अपने घरको भी नहीं बचाता है, उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह दूसरों के जलते बचायेगा । (पृष्ठ १०८ )
हुए
घरको
कड़वे सच
७३
पुनश्च भगवती आराधना में भी कहा है
-
कुलगाम णयररज्जं पयहिय तेसु कुणई ममत्तिं जो । सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ।। २९५ ।।
अर्थात् - जो कुल ग्राम, नगर और राज्य को छोड़कर भी उससे ममत्व करता है कि मेरा कुल है, गाँव है या नगर है, राज्य है वह भी केवल नम है। जो जिससे ममता करता है उसका यदि अच्छा होता है तो उसे सन्तोष होता है अन्यथा द्वेष अथवा संक्लेश करता है। इस तरह राग-द्वेष करने पर असंयतों में आदरवान होने से वह कैसे संयमी हो सकता है? (वह असंयमी ही है।) (पृष्ठ २७३)
इससे स्पष्ट होता है कि साधु बनने के बाद उसका कोई घर नहीं, परिवारजन नहीं तथा कोई गाँव वा गाँववाले नहीं। साधु का परिवार केवल सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र-तप यह है। उसे इसमें ही अनुराग रखना चाहिये, असंयमी गृहस्थों में नहीं ।
इसलिए आ. देवनन्दि ने कहा था
-
साधु जीवन में क्या झोपड़ी, क्या मठ, क्या आश्रम और क्या संस्था ? क्या आवश्यकता है साधु को इसकी ? यह सब तो परिग्रह की लालसायें हैं । (प्रज्ञा प्रवाह - पृष्ठ २९१) गुरुओंमें कोई विषयवासना और परिग्रह नहीं होता है । गुरुओं के कोई भी मठ अथवा संस्थाएँ भी नहीं होती हैं। (देव भाष्य पृष्ठ २०)
धर्म के असली दुश्मन
दिगंबर मुनि का वेष सब परिग्रहसे रहित होता है। (मोक्षपाहुड -९१) इसलिए आचार्य महावीरकीर्ति महाराज कहते थे -
-
गुरु वही सच्चा है जो वीतरागता के पथ पर चलकर पूर्ण वीतरागता को ही धर्म मानता है । (प्रवचनामृत-संग्रह
पृष्ठ ४)
किन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन साधु पुरुषों की प्रतिष्ठा - इज्जत देखकर, इनको दुनियाँ के लोगों द्वारा पूजते हुये देखकर अन्तरंग में साधुता न होते हुये भी पूज्यता के प्रलोभन में आकर भी साधु हो जाते हैं। (मानव धर्म - पृष्ठ ३८ )
कड़वे सच
-
७४