________________
पत्थर से, कलम से, खप्पर से, तृण से वा (लौंग, माचिस की तीली अथवा नींबु आदि की) छाल से दाँतों में इकट्ठे हुए मल को कभी दूर नहीं करते हैं उसको रागादिकको दूर करनेवाला अदंतधावन नामका मूलगुण कहते हैं। (पृष्ठ २१३)
इस अदंतधावन का महत्त्व जानकर आ. पुष्पदन्तसागर कहते हैंदाँतों को स्वच्छ बनाने के लिए मुनि स्वप्न में भी दाँतून या मंजन का उपयोग नहीं करते । ( कौन कैसे किसे क्या दे ? पृष्ठ ३५) दंतमंजन चाहे आहार से पहले करे अथवा बाद में करे, दोनों में भी दोष ही हैं क्योंकि शास्त्रों में अदंतधावन मूलगुण के वर्णन में आहार से पहले दाँत नहीं माँजना ऐसा उल्लेख नहीं होकर मात्र दाँतों का मल नहीं निकालना ऐसा सामान्य उल्लेख है।
इससे स्पष्ट होता है कि मुनि आर्थिका आहार से पहले अथवा आहार के बाद कभी भी दाँत माँजने अथवा दाँतों से मलअन्नकण निकालने का महादोष नहीं करते हैं ।
प्रसाद
-
-
प्रश्न
कोई पदार्थ अपने भक्तों को प्रसाद के रूप में दे सकते हैं ?
समाधान साधु अपने के लिये अपने हाथ में अन्न लेते उदरपूरण हैं, औरों को बाँटने के लिए नहीं। यदि कोई साधु हाथ में लिया हुवा किसी भी प्रकार का अन्न प्रसाद के रूप में किसी अन्य व्यक्ति को देता है तो उसकी यह अनधिकार चेष्टा मर्यादाभंग है। योगसार प्राभृत में कहा भी है -
क्या साधु आहार करते-करते अपने हाथमें का ग्रास या
-
पिण्ड : पाणिगतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते । दीयते चेन भोक्तव्यं, भुंक्ते चेद् दोषभाग् यतिः ||८ /६४ || अर्थात् - साधुके हाथमें पड़ा हुवा आहार दूसरेको देनेके योग्य नहीं होता (इसलिये किसीको नहीं दिया जाता), यदि दिया जाता है तो उस साधुको फिर आगे आहार नहीं करना चाहिये। (उसे अन्तराय करना चाहिये) यदि वह साधु अपने हाथका ग्रास ( प्रसाद के रूपमें) दूसरेको देकर
कड़वे सच
६३
आगे और आहार करता है तो वह दोषका भागी होता है । (पृष्ठ १८३)
प्रवचनसार में भी कहा हैअप्पटिकुपिण्
पाणिगयं णेव देयमण्णस्स । दत्ता भोत्तुमजोग्गं भुत्तो वा होदि पडिकुट्टो ||३/३०*२०।। अर्थात् - जो आहार आगमसे विरुद्ध नहीं है अर्थात् निर्दोष है वह हाथमें आनेपर उसे दूसरेको नहीं देना चाहिये। यदि ( प्रसाद के रूपमें भी) देता है तो फिर वह स्वयं भोजन करनेके लिये अयोग्य हो जाता है। यदि कदाचित् फिर भी आगे भोजन करता है तो वह प्रायश्चित्त के योग्य होता है। इसलिए साधु अपने हाथ में से कोई पदार्थ प्रसाद के रूप में नहीं दे सकते
1
द्रव्य के स्वामी नहीं होने से साधु अन्य दाताओं के द्वारा भी प्रसाद बँटवाने का काम नहीं करते । तथा संयमी और असंयमी दोनों को एक साथ अन्न देने से संयमी का अविनय होता है। मूलाचार में इसे मिश्र दोष कहा है
-
पाहि यस समय दहिसि । दादुमिदि संजदाणं सिद्धं मिस्सं वियाणाहि ||४२९ ।। अर्थात् - पाखण्डियों और गृहस्थों के साथ मुनियों को जो सिद्ध हुआ अन्न दिया जाता है उसे मिश्र दोष जानो । (पूवार्ध पृष्ठ ३३७ )
आहार... कितनी बार ?
प्रश्न -
अन्तराय आने पर अथवा आहार की विधि नहीं मिलने से मंदिर में आकर मुद्रिका छोड़ने पर कुछ समय बाद अथवा दोपहर सामायिक के बाद क्या वह साधु पुनः आहार के लिए निकल सकता है ?
समाधान - साधुओं के एकभक्त मूलगुण का अर्थ है एक दिन में एक बार ही आहार करना। शास्त्र की ऐसी आज्ञा है कि साधु चर्या के लिए प्रभात में अथवा अपराह्न काल में निकले। यहाँ ' अथवा ' के स्थान में अपने अंतः तःकरण को ही आगम और परम्पराका प्रतीक मान कोई-कोई लोग 'और' शब्द रखकर प्रभात में और अपराह्न में निकलना उचित मानते
कड़वे सच
६४