Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 8
________________ मुनिकुञ्जर आचार्य श्री आदिसागर जी मुनिराज (अंकलीकर) की श्रेष्ठ मुनि-परम्परा के पट्टाधीश- परम पूज्य तपस्वी सम्राट एवं वर्तमान के ज्येष्ठतम आचार्य श्री सन्मतिसागर जी मुनिराज के भी मुझ पर अनन्त उपकार हैं। दीक्षागुरु से मुझे सुविधि प्राप्त हुई है तो अपर गुरु से सन्मति प्राप्त हुई है। उन्होंने मुझे दी हुई सन्मति के कारण ही मैं पतन की ओर ले जाने वाले वर्तमान मतप्रवाह एवं विपरीत परिस्थितियों से निरन्तर जूझता हुआ भी सुविधि से मुनिपद का निर्वहन कर पा रहा हूँ। रीछा (राजस्थान) की घटना है - उस समय मैं नई अवस्था का मुनि था। एक दिन मैंने आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महाराज से पूछा"महाराज जी ! मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों की आवश्यकता है। परन्तु कभी ऐसा प्रसंग हो कि ज्ञान और चारित्र इन दो में से एक को चुनना है, तब मुझे क्या करना चाहिए ?" "पंचायारे अप्पं परंप गुंजा सो आइरियो ।" इस व्याख्या को सार्थक करते हुए आचार्यश्री ने अतिशय सुन्दर एवं समर्पक उत्तर दिया। उन्होंने कहा - "सम्यक्चारित्र सर्वश्रेष्ठ है। ज्ञान कों के क्षयोपशम पर निर्भर है। चारित्र अच्छा रहेगा तो ज्ञान स्वयं प्राप्त हो जाता है। इसलिए ज्ञान कम मिले तो कोई बात नहीं परन्तु अपने चारित्र को सँभालना अधिक आवश्यक है।" उनके द्वारा दिखाया गया यह सम्यक् प्रकाश ही मुझे अब तक मार्गदर्शन कर रहा है। ऐसे परमोपकारी सद्गुरु के चरणों में मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। अन्तमें कुछ सद्धर्मानुरागी सञ्जनों का उल्लेख करना मैं आवश्यक समझता हूँ - सौ. वर्षा चवरे (अकोला) सतत स्वाध्याय करने से स्थितिकरण अंग के पालन में कुशल हुई है। मुझे भी उसका लाभ हुआ है। इन्दौर निवासी श्री. संजय बाकलीवाल बहुत धार्मिक व्यक्ति है। एक बार उन्होंने मुझसे कहा, "महाराज जी ! सारा जग बदल जाये, परन्तु आप मत बदलना। आज आपकी चर्या आगमानुसार है, उसे हमेशा ऐसे ही बनाये रखना।" .. कड़वे सच viii बोरगांव (मंजू) की सौ. सारिका अजमेरा ने भी कहा था, "२५ वर्ष बाद भी आप आज जैसे हैं वैसे ही रहना। आज हमे सुधार कर कल स्वयं मत बदलना।" यह भावना केवल उनकी ही नहीं अपित् समस्त बोरगांववासियों की है। मुझे विश्वास है कि इन अपवादात्मक धर्मात्माओं के ये छोटे-छोटे वाक्य मुझे असावधानता के क्षणों में सँभाल लेंगे। संघस्थ ब्र. कमलश्री का अनुल्लेख निश्चित रूप से मेरी कृतघ्नता ही होगी। मेरे रत्नत्रय को कोई आँच न लगे इस लिए उसने जो कुछ किया, जो कुछ सहा, वह सब शब्दातीत है। ब्र. शैलेश जैन, ब्र. विनीता जैन, दीपिका जैन, प्रीति तथा निलेश धोंगड़े एवं श्री. अतुल कलमकर आदि भी निरन्तर मेरे रत्नत्रय की चिन्ता करते रहते हैं। बोरगांव (मंजू) की समाज में से किसी एक नाम लेना, दूसरों पर अन्याय ही होगा। वहाँ की समस्त समाज ने ब्र. कमलश्री के साथ भरपूर किन्तु निर्दोष वैयावृत्ति करके मुझे टीबी जैसी घातक व्याधियों से उबार कर मुझे नया जन्म दिया है। इस कृति के सृजन में जिन-जिन महानुभावों की कृतियों का उपयोग किया गया है, तथा इसके अक्षर-विन्यास, सुधार, मुद्रण, प्रकाशन आदि कार्यों में जिन-जिनने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग दिया हैं, उन सभी के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। "शास्त्रों में जो प्रतिपादन होता है, वह समीचीन धर्म का ही प्रतिपादन होता है क्योंकि समीचीन धर्म-सत्य की परम्परा अनादि-अनन्त होती है। उसे देश-काल की परिधि में बांधा नहीं जा सकता ।" बस, इस सत्य का विवेचन करने के लिए निर्मित इस लघुकाय ग्रन्थ में जो कुछ भी अच्छा है, उसका श्रेय पूर्वाचार्यों को है। इस कृति के वास्तविक सजेता वे ही हैं, मैं तो उनका संकलक मात्र हैं। मेरी अल्पज्ञता के कारण इसमें त्रुटियाँ रहना संभव हैं। उनका दोष मुझ जड़बुद्धि का है ऐसा समझ कर पापभीरु विद्वजन जिनवाणी के अनुसार उसे सुधार कर पढ़े। भद्रं भूयात् । -निर्गन्थ मनि सवन्द्यसागर - कड़वे सच ...... .

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