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संपत्ति के मालिक बने बैठे हैं । उनके बड़े-बड़े आश्रम (और क्षेत्र), महंगी कारे (नौकरों की फौजे) और भव्य जीवन शैली को देखकर लगता ही नहीं कि ये भारत के विरक्त संत हैं। आज वे "साधना' में कम, “साधनों" में ज्यादा जी रहे हैं । (कड़वे प्रवचन भाग १ - पृष्ठ १०९)
दुख की बात बड़े दुख की बात है कि देव भी जिस मुनिचर्या की प्रशंसा करते हैं तथा जिसका यथोक्त पद्धति से उत्कृष्ट पालन करने की भावना करते रहते हैं; उस त्रिलोकपूज्य मुनिपद का बाह्यवेष मात्र लेकर महापाप से भी नहीं डरने वाले कुछ स्वार्थी लोगों ने मुनिपद की गरिमा और मर्यादा नष्ट कर दी
धन, सुविधाएँ और लोकप्रियता पाने के लिए वे नकली मुनि यन्त्र, अंगुठियाँ, मालाएँ, रत्न, कलश आदि बेचना, गृहस्थों को तिलक करना, रक्षासूत्र बाँधना, फोटो बाँटना, लोगों के घर जाना, ग्रहशान्तिकालसर्प योग निवारण आदि शास्त्रविरुद्ध मनगढंत, निराधार और पापोत्पार्जक क्रियाएँ करके अज्ञानी लोगों को ठग रहे हैं । इतना ही नहीं, वे दीन होकर धनवान् गृहस्थों और नेताओं की स्तुति भी करने लगे हैं ।
लोग भी इस बात को भूल रहे हैं कि अत्यन्त प्रसिद्ध, आकर्षक और चतुर परन्तु धन का आशावान् वक्ता यथार्थ उपदेश नहीं दे सकता । इसलिए जो जिनआज्ञा मानने में सावधान है उसे स्वपरहितघातक तथा धान्य छोड़कर भूसी कूटने जैसा अकार्य करनेवाले परिग्रही और धनेच्छुक कुगुरुओं का त्याग करना चाहिये । क्योंकि - ऐसा कगरु स्वयं कुगति का पात्र बनता है व निजाश्रित (अपनी भक्ति करने वाले) अनेकों को कुगति में पटक देता है। (ए बे-लगाम के घोडे ! सावधान - पृष्ठ १०५)
सिंह के समान स्वाभिमानी और अयाचक वृत्ति का मूर्तिमन्त प्रतीक ऐसे निर्ग्रन्थ दिगंबर मुनिपद को लांछित करनेवाले ऐसे लोभी मुनिवेषधारियों के प्रति उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला में कहा है -
गुरुणा भट्टा जाया सद्दे थुणिऊण लिंति दाणाई । - कड़वे सच .................. २३ -
दोण्णवि अमणियसारा दुसमि समयम्मि बुइंति ।। ३१ ।। अर्थात् – ऐसे जो गुरु हैं वे तो भाट हुए; भाटों के समान शब्दों से दातार की स्तुति करके दान आदि ग्रहण करते हैं । सो इस दुःषमकाल में पात्र और दाता दोनों ही संसार में डूबते हैं ।
कहा भी है - लोभी गुरु लालची चेला. होय नरक में ठेल-ठेला ।
सावयधम्मदोहा में कहा भी है - सम्यग्दर्शन से रहित कपात्र को यदि दान दिया जाता है, तो उससे कभोग प्राप्त होते हैं। धनवानों के घर के घोड़े, हाथी, कुत्ते और वेश्याओं को जो भोग प्राप्त होते हैं, वे सब कुपात्रदान रूपी वृक्ष के नाना प्रकार के फल जानने चाहिये । (८१-८२)
कुपात्रदान का फल साधुओं को दिया हुआ दान निश्चय से महाकल्याणकारी है, परन्तु साधु के उत्तम गुणों से रहित विषय कषायों में लीन पात्र में दिया गया दान, भक्ति ऐसे (श्रेष्ठ) फल को नहीं देते क्योंकि आरम्भ-परिग्रह सहित साधु पत्थर की नौका के समान होते हैं - स्वयं भी डूबते हैं और दूसरों को भी डुबोते हैं । सो ही भावसंग्रह में कहा है -
लोहमए कुतरंडे लग्गो पुरिसो हु तीरिणीवाहे ।
बुड्डइ जह तह बुड कुपत्तसम्माणओ पुरिसो ।।५४९।। अर्थ : जिस प्रकार लोहे की नाव का आश्रय लेने वाला पुरुष नदी के प्रवाह में डूब जाता है, उसी प्रकार कुपात्र का आदर करने वाला - कुपात्र को दान देने वाला पुरुष संसारसमुद्र में डूब जाता है ।
जिस प्रकार नीमके वृक्षमें पड़ा हआ पानी कड़आ हो जाता है, कोदो में दिया हुआ पानी मदकारक हो जाता है और सर्पके मुखमें पड़ा हुआ दूध विष हो जाता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हआ दान विपरीत फलको करनेवाला हो जाता है । (हरिवंशपुराण-७/११८ - पृष्ठ १४१) इसलिए प्रबोधसार में कहा है -
बुद्धिपौरुषसाध्यासु दैवायत्तासु भूतिषु । साधवो नैव सेवन्ते मिथ्यात्वमुदितं नृपम् ।।३/२०५।। संसार में धन ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति बुद्धि से अथवा पौरुष से होती
कड़वे सच
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