Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 22
________________ इसलिए मुनि में परिग्रह का पूर्ण अभाव होता है। (पृष्ठ १६०) भगवती आराधना में परिग्रह का वर्णन इस प्रकार किया है - बाहिरसंगा खेत्तं वत्थु धणधण्णकुप्पभंडाणि । दुपय चउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा ।।१११३।। अर्थात् - खेती आदिका स्थान- क्षेत्र, मकान (आश्रम, क्षेत्र, मन्दिर), सुवर्ण (यंत्र, माला, रत्न, फोटो) आदि धन, जौ आदि धान्य, कुप्य अर्थात वस्त्र, भाण्ड शब्दसे हींग, मिर्च आदि, दपद शब्दसे दास, दासी, सेवक आदि, हाथी-घोड़े आदि चौपाये, पालकी, विमान (गाड़ी) आदि पान तथा शयन, आसन (पाटा, सिंहासन) आदि ये दस बाह्य परिग्रह हैं। बाह्य परिग्रहोंका त्याग किये बिना ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, वीर्य और अव्याबाधत्व नामक आत्मगुणोंको ढाँकनेवाले अभ्यन्तर कर्ममलको दूर नहीं किया जा सकता, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं - जह कंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स ।।१११४।। अर्थात् - जैसे तुष सहित चावलका तुष दूर किये बिना उसके अन्तर्मलका शोधन करना शक्य नहीं है वैसे ही जो बाह्य परिग्रहरूपी मलसे सम्बद्ध है उसका अभ्यन्तर कर्ममल शोधन करना शक्य नहीं है। (पृष्ठ ५७०-५७१) अष्टपाहुड में कहा है - दिगंबर साधुदीक्षा घोड़ा, हाथी (मोटरगाड़ी) आदि वाहनों के परिकर से रहित होती है। (पष्ठ २१८) जिनदीक्षा में रंचमात्र भी लक्ष्मी का स्वीकार करना निषिद्ध है। (पृष्ठ २१९) जो (रत्न, मालाएँ, यंत्र आदि) वस्तुओं को खरीदने और बेचने में आसक्त है...(फोटो, मालाएँ, यंत्र, मोटर,..) स्वर्णादि परिग्रह साथ रखता है ऐसे आत्महीन दीक्षित मनुष्य को क्या मुक्ति की प्राप्ति होगी? (नहीं होगी।) (पद्मपुराण-१०५/२३२, भाग ३ - पृष्ठ २९५) पीछी-संयमोपकरण, कमण्डल-शौचोपकरण और शास्त्रज्ञानोपकरण; इन तीन उपकरणों को श्रमण ग्रहण कर सकता है । इसके अलावा यदि (नॅपकीन, मोबाईल आदि) किसी वस्तु को ग्रहण करता है तो यह आगम के विरुद्ध है । (श्रुताराधना - पृष्ठ ७७) ताकि भक्तों का दिल न टूटे प्रश्न - साधु की परिग्रह रखने की इच्छा नहीं होने पर भी भक्तों ने लाई हई मालाएँ, नॅपकीन आदि नहीं लेने से उन भक्तों का दिल टट जायेगा इसलिए यदि साधु अनिच्छा से वह वस्तु रख ले तो भी क्या वह दोषी है ? समाधान - मूलाचार प्रदीप में कहा है - अदत्तमथवा दत्तं, यत्संयमादि हानिकृत् । तत्सर्वथा न च ग्राह्य, प्राणैः कंठगतैरपि ।।१७३।। अर्थ - जो द्रव्य दिया हो या न दिया हो; यदि वह संयम की हानि करनेवाला है तो ऐसा (तेल, मोबाईल, नॅपकीन, नेलकटर, गाड़ी आदि) द्रव्य कंठगत प्राण होने पर भी मुनियों को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये। (पृष्ठ २५) वैराग्यसार (टीका) में भी कहा है - निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण करके पश्चात् परिग्रह की संगति करते हो. तो तुमने इहलोक और परलोक दोनों का ही हरण किया है । हे मूर्ख जीव ! तुमने अपना जन्म वृथा ही खोया है ।।५।। (पृष्ठ ३) ऐसे मुनि के लिए परमात्मप्रकाश में कहा है - जे जिणलिंगु धरेवि मुणि इट्ट-परिग्गह लेंति । छदि हि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छद्दि गिलंति ।।२/९१।। अर्थात् - जो मुनि जिनलिंग ग्रहण कर (दीक्षा लेकर) फिर भी इच्छित परिग्रहोंको ग्रहण करते हैं,हे जीव! वे ही वमन करके फिर उस वमनको पीछे निगलते हैं। (पृष्ठ २१०) मक्खी सिलिम्मि पडिओ, मुवइ जहा तह परिग्गहे पडिउ । लोही मूढो खवणो, कायकिलेसेस अण्णाणी ।। ८८ ।। अर्थात् - जैसे मक्खी श्लेष्मा/कफ में गिरी हई मृत्यु को प्राप्त होती है, वैसे ही परिग्रहरूपी श्लेष्मा में पड़ा हुआ लोभी, मूर्ख, अज्ञानी साधु मात्र कायक्लेश में मरता है। (रयणसार - पृष्ठ ६४) ऐसे साधुको साधु बनने से तीन लाभ जरुर हो सकते हैं - मुंड मुंडाए तीन गुण, सिर की मिट गई खाज । .. कड़वे सच ..................... २८ - कड़वे सच ................... २७-

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