Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 34
________________ क्षेत्रपाल, वगैरह अथवा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह वगैरह सोना, रत्न, स्त्री, पत्र, हाथी, घोड़े आदि सम्पदा देने में असमर्थ हैं । इसी तरह ये सब देवता सुख, दुःख, रोग, नीरोगता आदि देकर या हरकर जीवका अच्छा या बुरा भी नहीं कर सकते हैं। जीव जो अच्छा या बरा कर्म करता है उसका उदय ही जीवको सुख, दुःख, आरोग्य अथवा रोग आदि करता है । (पृष्ठ २२६) अतः किसीने ठीक ही कहा है- तभी तक चन्द्रमाका बल है, तभी तक ग्रहोंका, तारोंका और भूमिका बल है, तभी तक समस्त वांछित अर्थ सिद्ध होते हैं, तभी तक जन सजन हैं, तभी तक मुद्रा और मंत्र-तंत्रकी महिमा हैं और तभी तक पौरुष भी काम देता है जबतक यह पुण्य है । पुण्यका क्षय होने पर सब बल क्षीण हो जाते हैं ।।३२०।। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा (टीका)पृष्ठ २२७) ___मंत्र, यंत्र और कलश आदि के माध्यम से यदि लक्ष्मी आ जाती, तो वह मंत्र आदि देनेवाले साधु दसरे लोगों से क्यों पैसे माँगते ? जो विभूति के लिये तंत्र-मंत्र के पीछे दौड़ रहे हैं । उन्हें न तो अपने पुण्य पर विश्वास है और न जिनवाणी पर । ..... ध्यान रखना, अज्ञानी चमत्कारों में घूमता है और ज्ञानी चेतन - चमत्कार (आत्म-साधना) में रमण करता हैं । (तत्त्वसार देशना - पृष्ठ ६५) अज्ञानी जीव व्यर्थ की आकुलता करके दुःखी हुआ करते हैं और ढोंगी-पाखण्डी साधुओं के चक्कर में आकर अपना सब-कुछ खो बैठते हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि विवेक के बिना मनुष्य पग-पग पर ठगाया ही जाता है। इसलिए गृहस्थों को भी चाहिये कि वे हर बात में यंत्र और मंत्र के चक्कर में पड़ने के बजाय धर्म और धर्मफल में दृढ़ श्रद्धा रखते हए आ. कुशाग्रनन्दीकृत बारह भावना के इस दोहे का चिन्तन करें - यंत्र - मंत्र औषधि वृथा, रक्षक हो गए वाम । तन पिंजर खाली रहा, रहा न आत्माराम ||२७।। भक्ताभक्त-कृपाण-पुष्पनिवही लोष्टोऽथवा भास्कर साम्यं यस्य सदा विभाति जगति श्रेयस्करं भास्वरम् । नित्यं श्री सुविधिर्वसेद् हृदि सदा साम्यं च मे मानसि आकांक्षास्ति सुवन्द्यसागर मुनेः तस्या भवेत् पूर्णता ।। ५. आहार आहारचर्या प्रश्न - साधु किन परिणामों से आहार लेते हैं ? समाधान - स्वादिष्ट शीतल पदार्थ मिल जाये तो उत्तम रहेगा क्योंकि उससे उपवास आदि की दाह का शमन हो जायेगा । दूध, रबड़ी मिले तो अच्छा है । घृत से बने पकवान मिल जायें, अच्छे फल और उनका रस आहार में मिल जाये, अच्छा खट्टा-मीठा, चरपरा भोजन मिलेगा तो स्वास्थ अच्छा रहेगा ऐसी अभिलाषा दिगम्बर मुनि कभी (प्रत्यक्ष में तो) क्या स्वप में भी नहीं करते । (कौन कैसे किसे क्या दे?- पृष्ठ १६) मूलाचार (उत्तरार्थ) में कहा है सीदलमसीदलं वा सुक्कं लुक्खं सिणिद्ध सुद्धं वा । लोणिदमलोणिदं वा भुजंति मुणी अणासादं ।।८१६।। गाथार्थ-ठण्डा हो या गरम, सूखा हो या रुखा, चिकनाई सहित हो या रहित, लवण सहित हो या रहित-ऐसे स्वादरहित आहारको मुनि ग्रहण करते आचारवृत्ति- शीतल-पूर्वाण्ह बेला में बनाया गया होने से जो उष्णपने से रहित हो चुका है ऐसा भोज्य पदार्थ, अशीतल-उसी क्षण ही उतारा हआ होने से जो गरम-गरम है ऐसे भात आदि पदार्थ, रुक्ष-घी, तेल, आदि से रहित अथवा कोदों व मकुष्ट-अन्नविशेष आदि पदार्थ, शष्क- दूध, दही, व्यंजन अर्थात् साग, चटनी आदि से रहित, स्निग्ध-घूत आदि सहित शालिधान का भात आदि, शुद्ध-चूल्हे से उतारा गया मात्र-जिसमें किंचित भी कुछ डाला नहीं गया है, नमक सहित भोजन या नमक रहित पदार्थ ऐसे कड़वे सच कड़वे सच . . . . . . . . ... ५२

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