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रसरहित भोजन मिले तो कषाय करते हैं - उस गृहस्थको बुरा समझते हैं, वे तपोधन (मुनि) नहीं हैं, भोजनके लोलुपी हैं-गिद्धपक्षीके समान हैं। ऐसे लोलुपी यति देहमें अनुरागी होते हैं, परमात्म-पदार्थको नहीं जानते
भोजन को मुनि जिह्वा का स्वाद न लेते हुए ग्रहण करते हैं। अर्थात् ठण्डे गरम आदि प्रकार के आहार में राग-द्वेष न करते हुए समता भाव से स्वाद की तरफ लक्ष्य न देते हुए मुनि आहार लेते हैं। (पृष्ठ ६३)
जोगेसु मूलजोगं भिक्खाचरियं च वणियं सुत्ते ।
अण्णे य पुणो जोगा विण्णाणविहीणएहिं कया ।।९३९।। अर्थात् - आगम में योगों में मूलयोग भिक्षा चर्या ही कही गयी है। किन्तु इससे अन्य योगों को विज्ञान से हीन मुनियों ने ही किया हैं। आचारवृत्ति - संपूर्ण मूलगुणों में और उत्तरगुणों में मूलयोग- प्रधानव्रत भिक्षाशुद्धि है जिसका वर्णन कृत-कारित-अनुमोदनारहित प्रासुक भोजन की समय पर उपलब्धि के रूप में जिन प्रवचन में किया गया है। अत: भिक्षाशुद्धि को छाड़कर उपवास, त्रिकाल योग अनुष्ठान आदि अन्य योगों को वे ही करते हैं जो विज्ञान अर्थात् चारित्र से रहित हैं और परमार्थ को नहीं जानते हैं। आहार की शुद्धिपूर्वक जो थोड़ा भी तप किया जाता है वह शोभन है। (मूलाचार उत्तरार्ध - पृष्ठ १३२)
___गाय घास डालने वाले को नहीं देखती, सिर्फ घास को ही देखती है; उसी प्रकार मुनि भी आहार दाता के रूप-रंग (और धन-संपत्ति) को नहीं देखते, मात्र भोजन की शुद्धता और सात्विकता को देखते हैं । (अमृत कलश - पृष्ठ १५९)
यदि तुम ड्रायफूट खाकर व्रत करते रहो तो शरीर पष्ट हो जाएगा, लेकिन आत्मबल काफी कमजोर हो जायेगा । (कुछ तो है - पृष्ठ २४५) शरीर को पुष्ट करने के लिए जो साधु आहार लेता है उसकी सांसारिक दुःखों से कभी मुक्ति नहीं हो सकती । (स्वानंद विद्यामृत - पृष्ठ १४९ (हिन्दी अनुवाद)) परमात्मप्रकाश में कहा है -
जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसी कसाउ वहति । ते मणि भोयण-घार गणि णवि परमत्थु मुणंति ।।१११*४।। भावार्थ - जो कोई वीतरागमार्गसे विमुख हुए योगी रससहित स्वादिष्ट आहारसे खुश होते हैं - कभी किसीके घर छह रसयुक्त आहार पावें तो मनमें हर्ष कर (उस) आहार देनेवालेसे प्रसन्न होते हैं, यदि किसीके घर
और यतीका यही धर्म है कि अन्न-जलादिमें राग न करे, और मान-अपमानमें समताभाव रक्खे । गृहस्थके घर जो निर्दोष आहारादिक जैसा मिले वैसा लेवे, चाहे (केवल दाल-रोटी अथवा) चावल मिले. चाहे अन्य कुछ मिले । जो कुछ मिले उसमें हर्ष-विषाद न करे । दूध, दही, घी, मिष्टान्न (नाना प्रकारके फल) इनमें इच्छा न करे । यही जिनमार्गमें यती (मुनियों) की रीति है । (पृष्ठ २३१-२३२)
आहार के प्रति उनके मन में जरा भी ममत्वभाव नहीं होता । (कौन कैसे किसे क्या दे ? - पृष्ठ १९) इसलिए आ. देवनन्दि ने कहा हैंमुनि कभी किसी श्रावक से अपने आहार के बारे में एक शब्द भी नहीं कहते । श्रावक भक्तिपूर्वक जैसा देते हैं वैसा ही वे मौनपूर्वक ग्रहण कर लेते हैं । (देव भाष्य - पृष्ठ ७५)
शुद्ध आहारचर्या का महत्त्व मूलाचार प्रदीप में कहा है -
मूलोत्तरगुणेष्वत्र भिक्षाचर्यादिता जिनैः । प्रवरा तां विना विश्वे ते कृताः स्युनिरर्थकाः ।।२५५४।। अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव के मत में समस्त मूलगुण और उत्तरगुणों में भिक्षाके लिये चर्या करना ही उत्तम गुण माना जाता है, उस शद्ध भिक्षाचर्या के बिना बाकी के समस्त गुण निरर्थक ही बतलाये हैं। (पृष्ठ ३९२) इसलिए कहा है -
इत्येषाशन शुद्धिश्चानुष्ठेया यत्नतोन्वहम् । विश्वधर्मखनी सारा वृत्तमूला गुणाकरा ।।५६८।।
इस प्रकार कही हुई यह भोजन शुद्धि मुनियों को प्रयत्न पूर्वक प्रतिदिन करनी चाहिए। क्योंकि यह भोजन शुद्धि समस्त धर्मों की खानि है, सारभूत है, चारित्र की जड़ है और गुणोंकी खानि है।
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कड़वे सच
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