________________
है अथवा भाग्य से होती है । इसलिए सम्यग्दृष्टि सजन पुरुष मिथ्यात्व से प्रसन्न होने वाले (देव, गुरु,) राजा की सेवा कभी नहीं करते हैं । (पृष्ठ
२०१)
अतः हमारे सच्चे अतिथि 'आरम्भ व पंचसूनारहित' मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका ही हो सकते हैं । (रत्नकरण्ड श्रावकाचार (प्रश्नोत्तरी टीका)-११४, पृष्ठ १८३) भाव एवं चारित्र से हीन साधु (तो पात्र नहीं) अपात्र हैं। (अंकाख्यान श्रेयांस कोश-भाग ३ - पृष्ठ १०) अपात्रों को दान देने से द्रव्य का केवल दरुपयोग होता है, उससे फल कुछ भी नहीं होता । (धर्मसंग्रह श्रावकाचार-४/११८) अर्थात् - जिसने अपात्र को दान दिया, उसने अपना धन खोया । (सावयधम्मदोहा-८४) अतः उनको दान देने में धर्म नहीं है; वे तो केवल करुणा के पात्र हैं।
दातार को चेतावनी धन के लालची साधुओं का वर्णन करते हुए महाराज ने कहा था
"ऐसे भी साधु बहुत होते थे, जो पैसा रखते थे। कमण्डलु में पैसे डलवाते थे। ऐसे साधु को पैसा देनेवाला पहले वर्गति को जाता है। तुम पैसा देकर के पहले स्वयं क्यों दुर्गति को जाते हो?"
___ इससे आचार्यश्री की स्फटिक सदृश विशुद्ध दृष्टि स्पष्ट होती है। कोई गृहस्थ साधु के हितशत्रु किन्तु भक्तरूपधारी बनकर उनको रागादिवर्धक सामग्री देते हैं। इस धर्मविरुद्ध कार्य से ऐसे दातार कुगति में जाते हैं। (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ ३७१)
इसलिए दिगम्बर मुनि के हाथ में यदि रखा जाता है तो एकमात्र ग्रास ही होता है, और कोई द्रव्य दिगम्बर मुनि के हाथ में नहीं रखा जाता । जिसने ग्रास के अलावा अन्य वस्तु रखी है, वह मुनि-हत्या का दोषी है । (इष्टोपदेश-सर्वोदयी देशना - पृष्ठ २)
आदाय व्रतमात्मतत्त्वममलं ज्ञात्वाथ गत्वा तपः सन्तोषो धनमुन्नतं प्रियतमा शान्तिस्तपो भोजनम् ।
क्षुत्तृष्णाभयसङ्गमोहजनितां हित्वा विकल्पावलिं यत्नाद्येन पुरा स देव सुविधि->षात् सदा पातु नः ।।
३. पारग्रह
क्या है आचेलक्य ? भगवती आराधना में कहा है - आचेलक्यमें केवल वस्त्रका ही त्याग नहीं कहा किन्तु सर्व परिग्रहका त्याग कहा है।
ण य होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं । तम्हा आचेलक्कं चाओ सव्वेसि होइ संगाणं ।।१११८।।
केवल वस्खमात्रका त्याग करनेसे और शेष (नौकर, गाड़ी, टॉर्च, टीवी, रेडिओ, मोबाईल, नॅपकीन, फोटो, यंत्र, रसोई बनाने के लिए कोयले, विशिष्ट धातु के बर्तन, चकी, तेल आदि) परिग्रह रखनेसे साधु नहीं होता। यदि आचेलक्य (नग्नता) से वस्त्रमात्रका त्याग ही कहा होता तो वस्त्रके सिवाय अन्य परिग्रहको ग्रहण करनेवाला भी साधु हो सकता था। (परन्तु ऐसा नहीं है।) अतः आचेलक्यका अर्थ सर्व परिग्रहका त्याग मानना चाहिए। ... तथा महाव्रतका कथन करनेवाले सूत्र इस बातके ज्ञापक हैं कि आचेलक्यमें सर्व परिग्रहका त्याग कहा है।
और भी कहा हैं कि यदि साधुके लिए केवल वस्त्रमात्र ही त्याज्य है, अन्य परिग्रह त्याज्य नहीं है तो अहिंसादिव्रत नहीं हो सकते-किन्तु परिग्रहका त्याग करनेपर अहिंसादि व्रत स्थिर रहते हैं। तथा परिग्रह स्वीकार करनेपर इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा अवश्य होती है । (पृष्ठ ५७४-५७५)
इसीलिए आचार्य अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है - तन्मूला सर्वदोषानुषङ्गाः ७/१७/६। अर्थात्-परिग्रह सब दोषों का मूल है।
आ. सुविधिसागर कहते हैं - परिग्रह परद्रव्य के प्रति ममत्वभाव को जागृत करता है । परिग्रह दुर्गति का कारण है। (सजनचित्तवल्लभ - पृष्ठ १०) अतः आत्मकल्याण करने के इच्छुक साधक को परिग्रह का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिये । (पृष्ठ १३)
आ. पुष्पदंतसागरकृत प्रवचनांश संग्रह अमृत कलश में कहा है - जहाँ तृणमात्र भी परिग्रह नहीं बस वही अकिंचन व्रत है। (पृष्ठ २८) क्योंकि परिग्रह के साथ भय और चिन्ता आती है। (पृष्ठ ११४)
- कड़वे सच
२५/
कड़वे सच ......................... २६ -