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इसके बिना मुझे ज्ञान अथवा चारित्रकी सिद्धि नहीं होगी, उसी वस्तुको साधु ग्रहण करता है, अनुपयोगी वस्तुको ग्रहण नहीं करता है। (पृष्ठ ६११)
आ. महावीरकीर्ति शिष्यों को कहते थे - पीछी, कमण्डलु और शाख के सिवाय कुछ भी नहीं रखना होगा । (आचार्य श्री सन्मतिसागर अभिवन्दन ग्रन्थ - पृष्ठ २/५५)
इसलिए गणधराचार्य कुन्थुसागर कहते हैं - (मनि) वही उपकरण ग्रहण करते हैं जिससे चर्या-चारित्र का भंग नहीं होवे। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार (पूवार्ध) - पृष्ठ २१४) फिर भी यह आश्चर्य है कि किन्हीं जैन कहे जाने वालों में परिग्रह-परिकर रखते हए भी अपने को संयत (मुनि) कहने में और कहलाने में संकोच नहीं किया जाता है । (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ ८४)
ध्यान रखना- संत की साधना के लिए आचार्य श्रावक के द्वारा पिच्छी, कमंडलु और शास्त्र के दिलवाते हैं । लेकिन महत्त्वाकांक्षी श्रावक साधु से सदा-सदा के लिए जुड़े रहने के लिए (मोबाईल आदि) भौतिक संसाधनों की व्यवस्था करा देता है । (कुछ तो है - पृष्ठ २७०)
ऐसे भक्तरूपधारी शत्रु गृहस्थों से सावधान करते हुए आ. सुविधिसागर कहते हैं-परिग्रह मकड़ी के जाल की भाँति है । जो जीव उसमें एकबार भी उलझ जाता है, फिर वह अपने आपको मुक्त नहीं कर पाता । (ज्ञानांकुशम् - पृष्ठ ११६) परन्तु जो कोई संसार से विरक्त होना चाहता है, उसे समस्त परिग्रह से दूर रहना चाहिए । (कुछ तो है - पृष्ठ २००)
आ. देवनन्दि भी कहते हैं - सामुओं को अयुक्त (अयोग्य) उपकरणों को नहीं लेना चाहिये । श्रावकों से वही दान स्वीकार करना चाहिये जिससे संयम की रक्षा होती हो । दान तो चार ही प्रकार के हैं - आहार, अभय, औषधि और शास्त्र अथवा उपकरणदान । साधु इनके अलावा जमीन, सुवर्ण आदि के दान को न स्वीकार करता है, न ऐसे दान की प्रेरणा देता है । (प्रज्ञा प्रवाह - पृष्ठ ३२-३३) जो परिग्रह आदि से सहित हैं, मन में राग-द्वेष रखते हैं, जो साथ में गाड़ी
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आदि आडंबर रखते हैं, वे वास्तव में साधु नहीं हैं । जो खेती, किसानी करते हैं वे साधु नहीं हैं । ऐसे साधुओं को मोक्षमार्ग में कोई भी स्थान नहीं है । (सागर प्रवाह - पृष्ठ १५४) सच्चा गुरु परिग्रह से रहित है । जिसके पास तिल मात्र भी परिग्रह है ऐसा साधु मरकर निगोव-नरक की यात्रा करता है । गुरु वह होता है जो शाख के अनुसार चलता है। (पृष्ठ १५५)
नॅपकीन रखने में दोष प्रश्न - साधुओं के द्वारा नॅपकीन रखने में क्या दोष है ?
समाधान - मुनि प्रार्थनासागर कदम-कदम पर मंजिल (भाग ४) में कहते हैं - (जैन साधु) कपड़े की पिच्छी इसलिये नहीं रखते हैं क्योंकि सभी संतों का कपड़े का त्याग रहता है । और फिर वह (कपड़ा) गंदा हो जाता है । उसे धुलाना पड़ेगा । इससे भी हिंसा होगी और पूर्ण अहिंसा धर्म का पालन नहीं हो पायेगा । .... कपड़े में राग-द्वेष भी होगा और मूर्छा बढ़ती जायेगी जिससे अपरिग्रह महाव्रत का पालन भी नहीं हो पायेगा । इस प्रकार कपड़े की पिच्छी में अनेक दोष हैं । (पृष्ठ २६५)
नॅपकीन रखने में भी ये धोना आदि सब दोष आते ही हैं तथा परिग्रह से रहित होना और शरीर से निर्ममता होना इन मुनिपद के दो बाह्य लक्षणों का अभाव होकर सुखशीलता प्रकट होती है । इसलिए जैन साधु अपने पास नॅपकीन न रखते हैं, न दूसरों के पास रखवाते हैं । अपने व्रतों का नाश करने वाले तथा महान पाप उत्पन्न करने वाले ऐसे कार्य किसी को भी शोभा नहीं देते हैं।
चश्मा और घड़ी वर्तमानमें चश्मा और घड़ीका उपयोग दिगम्बर साधुओंके द्वारा होता है। इनमें चश्मा शास्त्राभ्यासमें भी सहायक और मार्गदर्शनमें जीवबाधा दूर करनेमें भी उसका उपयोग होता है, अतः ज्ञान और संयम दोनोंका सहायक होनेसे दिया जा सकता है। किन्तु वह सुन्दरताकी (अथवा फॅशनकी) दृष्टिसे कीमती न देना चाहिए और न उन्हें लेना भी चाहिए। घड़ी न संयमका साधन है और न स्वाध्यायका, अतः उसका दान उपकरण-दान नहीं; न यह देना
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