Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 27
________________ चाहिए और न साधु को अपने पास रखना ही चाहिए । साधुके लिए प्रातः, सायं और दोपहर सामायिकके काल हैं । प्रातःकाल सूर्योदयसे, सायंकाल सूर्यास्तसे और मध्याह्नकाल मध्यसूर्यसे सहज ही जाना जाता है । करोड़ों ग्रामीण जनोंको बिना घड़ीके ही समय ज्ञान दिनमें तो सहजही होता है, रात्रिमें भी नक्षत्रोंके उदयास्तसे ज्ञान कर लेते हैं । अतः घड़ीका आदान प्रदान संयम साधक न होनेसे उपकरण दानमें सम्मिलित नहीं किया जा सकता । हाँ, चातुर्मास आदि समयमें वर्षायोगके कारण मेघाच्छन्न सर्य होनेसे अथवा दैनिक कार्यक्रमसे विभिन्न धर्माराधनाओंके हेतु समयकी प्रतीतिमें बाधा होती हो तो श्रावक उस स्थान पर स्थानप्रबन्धकी तरह यदि घड़ी लगा दे तो उससे समय देखनेमें साधुको कुछ बाधा नहीं, पर उस वस्तुको अपने साथ हमेशा रखा नहीं जा सकता । वस्त्र और बर्तनकी तरह बैटरी, फाउन्टेन पेन, ग्रामोफोनके रिकार्ड, शब्दग्राही (रिकार्ड बनानेवाली) मशीनें, वस्त्रकी कुटीरें (टेन्ट), चटाइयाँ और बैठनेके काष्ठासन आदि भी साधु अपने साथ नहीं रख सकता । ये सब परिग्रहमें सम्मिलित हैं, अतः इनका दान भी उपकरणदान नहीं है । साधुके आने पर श्रावक इन चीजों को अर्थात् बैठने को उच्चासन हेतु काष्ठासन, वेत्रासन तथा तृणासन दे सकता है । उनके लिए सामान्य कुटी और स्थान के अभावमें वस्त्रकी कुटी बनाकर उसमें ठहरनेको स्थान दे सकता है। रिकार्डिंग मशीन द्वारा उनके भाषणको रिकार्ड कर सकता है। ये सब साधन गृहस्थ द्वारा यथा समय उपयोगमें लाए जा सकते हैं । पर साधु इन साधनोंका उपयोग स्वीकार करके भी इन साधनोंको स्वीकार नहीं कर सकता । इनका स्वायत्तीकरण परिग्रह ही है । उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट हुआ कि परिग्रहका दान साधुको नहीं दिया जा सकता । किन्तु मात्र ज्ञान और संयमके साधनभूत सुनिश्चित पदाचोका दान ही जिनकी चर्चा उपर आ गई है उपकरणदान के नामसे किया जा सकता हैं । (श्रावकधर्मप्रदीप- पृष्ठ १८९) कुदान का फल प्रश्न - साधुओं को कुदान देने का फल क्या होता है ? समाधान - रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने द्रव्य का त्याग करने या रत्नत्रय केयोग्य साधनों के प्रदान करने की इच्छा का नाम दान है । (धवला पुस्तक १३ - पृष्ठ ३८९) इसलिए-यदि आप पात्र को दान दे रहे हो, तो ऐसा द्रव्य मत देना जिससे राग बढ़े । पिच्छी, कमंडल और जिनवाणी ये तीन उपकरण माने जाते हैं निर्ग्रन्थों के । पात्र को वही वस्तु दान में दे जिससे दुःख व (संभालने का) भय न हो, असंयम न हो । उनकी तपस्या व स्वाध्याय में वृद्धि का कारण बने ऐसा ही द्रव्य देना। (पुरुषार्थ देशना -पृष्ठ ३५८-३५९) मोक्षार्थी संयमपरायण मुनि के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र बढ़ाने वाले (पीछी, कमण्डलु, शास्त्र ऐसे) धर्मोपकरण देने चाहिए। (तत्त्वार्थवार्तिक-७/२२/२८ पृष्ठ - ७३६) क्योंकि दिये जाने वाले अन्न आदि में उपकरणों में ग्रहण करने वाले के तप, स्वाध्याय के परिणामों की वृद्धि की कारणभूतता है। (तत्त्वार्थवार्तिक-७/३९/३, पृष्ठ ७४१) पात्रों की गुणों की वृद्धि करने वाला द्रव्य यदि अर्पित किया जाता है तो वह दाता को पुण्यासव कराने वाला होता है। दोषों की वृद्धि कराने वाला द्रव्य यदि पात्र को दिया जायेगा तो वह दाता को पापासव-पाप का बंध कराने वाला होगा । (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार-७/३९-६, पुस्तक ६- पृष्ठ ६५३) जो वस्तु साधु के योग्य नहीं है, ऐसे रुपया, कार, बस, फ्रीज, कूलर, पंखा आदि उन्हें नहीं देना चाहिये । (श्रावक कर्तव्य - पृष्ठ १३) पिच्छी, कमंडलु और शाख के अलावा जो भी दिया जावेगा, वह उपकरण नहीं परिग्रह ही होगा ।...वह साधु के साथ परिग्रह देनेवाले श्रावक को, तथा परिग्रह का समर्थन करनेवालों को भी पाप का कारण है। (कर्तव्य बोध - पृष्ठ ३१-३२) जो दुर्बुद्धि पुरुष शम-भाव से रहित होकर साधुओं को धन देता है, वह निश्चयसे मूल्य देकर दुर्निवार पाप खरीदता है। (अमितगति श्रावकाचार-९/ - कड़वे सच.....................-३८ कड़वे सच .............................-३७ -

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