Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 24
________________ इसलिए आ. गुणधरनंदी कहते है - नग्न दिगंबर साधु है किन्तु यदि मन में पदार्थों के साथ मोह ममता है तो वह परिग्रही है। उस साधु की अपेक्षा भरत जैसा गृहस्थ श्रेष्ठ है । (महक उठा जीवन -पृष्ठ ६३) इससे स्पष्ट होता है कि जो बाहरी पदार्थों को ग्रहण करता है उसके अंतरंग में निश्चय से मूर्छा होती ही है, मुख से वह स्वीकार करे अथवा न करे। पाप को पाप नहीं मानने वाला महापापी होता है। अपवाद मार्ग का अर्थ स्वच्छन्द वृत्ति नहीं है । प्रश्न - कई साधु मोबाईल, नॅपकीन आदि संयमघातक वस्तुएँ रखकर अपनी सुखशीलता को अपवाद मार्ग का नाम देते हैं। वे कहते हैं कि "द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार साधु कुछ उपधि अर्थात् परिग्रह रख सकते हैं ऐसा अपवाद मार्ग का व्याख्यान शास्त्रों में है। इसलिए उन वस्तुओं से उनका मुनिपद नष्ट नहीं होता।" क्या उनका यह कथन सत्य के प्रति भगवती आराधना में कहा है - अभंतरसोधीए गंथे णियमेण बाहिरे चयदि । अभंतरमइलो चेव बाहिरे गेङ्गदि हु गंथे ।।१९०९।। अर्थात - अन्तरंगमें कषायकी मन्दता होनेपर नियमसे बाह्य परिग्रहका त्याग होता है। अभ्यन्तरमें मलिनता होनेपर ही जीव बाह्य परिग्रहको ग्रहण करता है। (पृष्ठ ८४६) षट्रखंडागम में जीवस्थान के सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के सूत्र ९३ की टीका में वीरसेन स्वामीने स्त्रियों के भावसंयम के विषय में कहा हैंभावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्ध इति चेत् ? न तासां भावसंयमोऽस्ति, भावासंयमाविनाभावि वखाद्युपादानान्यथानुपपत्तेः। शंका- वस्त्रसहित होते हए भी उन द्रव्यस्त्रियों के संयम होने में कोई विरोध नहीं है? समाधानउनका भावसंयम नहीं है, क्योंकि अन्यथा भावसंयम के मानने पर उनके भाव असंयम के अविनाभावी वस्त्रादिक का ग्रहण करना नहीं बन सकता है। (धवला पुस्तक १ - पृष्ठ ३३५) तथा प्रवचनसार में स्पष्ट कहा है कि बाह्य परिग्रह से मूर्छा उत्पन्न होकर अन्तरंग संयम का घात होता ही है । (३/२१ - पृष्ठ २७१) __जो पदार्थ बुद्धिपूर्वक ग्रहण किया जाता है उसमें मूर्छा वा परिग्रह का अभाव कभी सिद्ध नहीं हो सकता । (संशयिवदनविदारण - पृष्ठ ९४) इससे स्पष्ट होता है कि परिग्रह मर्जी का परिणाम है। (अमृत कलश - पृष्ठ ११४) इसलिए बाइ पदार्थ भी मूळ का कारण होने से परिग्रह ही है। ऐसी वस्तुएँ ग्रहण करने पर वह मुनि संयम से भ्रष्ट होकर असंयमी हो जाता है। इस प्रकारसे परिग्रह रखकर भी स्वयं को अपरिग्रह महाव्रती माननेवाले मुनि के लिए ज्ञानार्णव में कहा हैं - सर्वसंगपरित्याग: कीर्त्यते श्रीजिनागमे । यस्तमेवान्यथा ब्रूते स हीन: स्वान्यघातकः ।।१६/२२।। अर्थात् - श्रीमजिनेन्द्र भगवान् के परमागम में समस्त परिग्रहों का त्याग ही महाव्रत कहा है, उसको जो कोई अन्यथा कहता है, वह नीच है तथा अपना और दूसरों का घातक है। (पृष्ठ १३८) समाधान - नहीं ! उनका यह प्रलाप आगम का अपलाप मात्र है। अपवाद मार्ग तो उसे कहा है - जिससे मूलगुणों का विच्छेद अथवा चारित्र का मूलतः विनाश न होने पावे । (योगसार प्राभृत-८/६५, पृष्ठ १८४) प्रवचनसार में कहा है - छेदो जेण ण विजदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स । समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ।।२२२।। अर्थात - द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को जानकर जिस वस्तु के ग्रहणविसर्जन में सेवन करनेवाले (साधु) के संयम का छेद नहीं होता ऐसी उपधि ग्रहण करके श्रमण सम्यक् आचरण करे । अप्पडिकुटुं उवधिं अपत्थणिजं असंजदजणेहिं । मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ।।२२३।। अर्थात् - भलेही अल्प हो तथापि अनिन्दित हो, असंयत अर्थात् संसारी लोगों से अप्रार्थनीय हो और जो मोह उत्पन्न करनेवाली न हो, ऐसी ही (पीछी, कमण्डलु, शास्त्र रूप) वस्तुओं को हे श्रमण! तुम ग्रहण करो । इससे यथोक्त स्वरूपवाली उपधि ही उपादेय है. तथोक्त स्वरूप से - कड़वे सच . ............ ३१/ कड़वे सच . . . . . . . ...... | ३२

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