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सत्यासत्य का निर्णय
निर्ग्रन्थता अर्थात् दिगम्बरत्व ही एक ऐसा बाँध है कि जिसको परवादी लांघ नहीं सकते । ज्यों ही यह बांध टूटेगा त्यों ही जैन धर्म का निर्मल स्वरूप नष्ट हो जाएगा। इसलिए दिगंबरत्व की महिमा दिगंबरत्व की पूजा से ही बचाई जा सकती है, लौकिक हानि-लाभ का खाता देखकर, आस्थाविहीन और मूढ़ता-ग्रसित जनों के साथ समझौते करके नहीं । (सोनगढ़ समीक्षा - पृष्ठ १९७) इसलिए जैसा कि शिवपथ में कहा है.
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देव शास्त्र गुरुणां हि परीक्षा प्रथमा क्रिया ।। ५३ ।। देवशास्त्रं गुरोः परीक्षणं च प्रथमं कर्तव्यं वा अस्ति । देव-शास्त्र-गुरु की परीक्षा करना प्रथम कर्तव्य है । (पृष्ठ ८९-९०)
पाँच महाव्रत आदि १८ मूलगणों का जैन साधु हमेशा पालन करते हैं । इनमें से एक भी क्रिया कम होने पर उसे साधु नहीं माना जाता है। (संत साधना पृष्ठ १५ ) यही कारण है कि आ. चंद्रसागर कहते हैं- जो आरंभ-परिग्रह सहित हैं, वे मिथ्या गुरु कहलाते हैं। (सहस्राष्टक चर्चा पृष्ठ १२२)
अतः आ. विमदसागर कहते हैं- सग्रन्थ (परिग्रही) को गुरु मानना... यह सब तो मिध्यात्व है । (जिज्ञासा के समाधान-पृष्ठ १३६ ) आगम और परम गुरुओं की परम्परा से प्राप्त इस उपदेश को केवल तर्कों के बल से विघटित नहीं किया जा सकता। फिर भी पंचम काल, हीन संहनन और परिस्थिति के झूठे बहाने की आड़ लेकर आगमविरुद्ध क्रियाओं तथा परिग्रह का समर्थन करने के लिए जो तरह-तरह के कुतर्क करते हैं, उनके वे वचन तभी तक रम्य लगते हैं, जब तक कि उन पर विचार न किया जाये, विचार प्रारम्भ करते ही वे मूर्खो के अपलाप लगने लगते हैं। ऐसे लोगों के लिये इतना ही कहना चाहिये कि नीम न होय मीठी, जो खाओ घी अरु गुड़ से
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इसलिए आ. सुविधिसागर कहते हैं। जब कोई व्यक्ति मुझसे कहता है कि महाराज, दुनिया बदल गई तो मुझे बहुत हँसी आती है। अरे,
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दुनिया बदल गई, कैसे ? क्या बैल दूध देने लगे ? क्या पुरुष सन्तान पैदा करने लगे ? क्या सूरज रातमें और चन्द्रमा दिनमें चमकने लगा ? क्या बदला ? बदली है तो मानवकी बुद्धि तथा दृष्टि । (सुप्त शेरों ! अब तो जागो - पृष्ठ २६ - २७ )
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आ. पुष्पदन्तसागर ने भी कहा हैं नाच न जाने आँगन टेढ़ा । नाचना सीखो, आँगन टेढ़ा मत कहो । त्याग करना सीखो, काल को दोष मत दो। टेढ़े आँगन में भी नाच हो सकता है। जो नाचना जानता है वो टेढ़े आँगन में भी नाच सकता है। जो परमात्मा भाव से भरा है वह पंचम काल में भी ( सच्चा) मुनि बन सकता है। (तथा शास्त्रों के अनुसार मुनिचर्या का पालन कर सकता है।) ( अमृत कलश पृष्ठ १५९) सारांश
जिसमें सम्यग्दर्शनसहित निर्ग्रन्थ रूप है, वही निर्ग्रन्थ
है । ( तत्त्वार्थवार्तिक- ९ / ४६ / ११, पृष्ठ ७९८)
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और ऐसे निर्ग्रन्थ के सिवाय अन्य कोई गुरु नहीं है। (शान्तिनाथ पुराण- ८ / २७, पृष्ठ १०९)
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इसलिए ध्यान रखना, जो निर्ग्रन्थ (अपरिग्रही) नहीं है, वे हमारे गुरु नहीं हैं । ( पुरुषार्थ देशना पृष्ठ १६६) बिना कुछ विचार किये निर्ग्रन्थ और सग्रन्थ सबको नमस्कार करना यह विनय नहीं, वैनयिक मिथ्यात्व है । (ति. प. ३ / २०१-२०३) १ तिलोय पण्णती ( खण्ड १) में कहा है ज्ञान और चारित्र के विषय में जिसने अभी शंका को दूर नहीं किया है, जो क्लिष्ट भाव से युक्त है, वे मिथ्यात्व भाव से युक्त होकर भवनवासी देवों की आयु बाँधते हैं । (३ / ११८ - पृष्ठ १३६) परन्तु आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग शास्त्र का अध्ययन नहीं करते हैं जिससे कौन साधु या आचार्य प्रामाणिक हैं, वे आगम के अनुसार उपदेश देते हैं या नहीं इसका उनको ज्ञान नहीं हो पाता है । वे भोलेपन से मात्र नग्न मुद्रा और पीछी-कमण्डलु देखकर उनके मोबाईल, लैपटॉप, मोटर, नौकर आदि परिग्रह की ओर दुर्लक्ष करके उनको गुरु मान लेते हैं और इस बात को भूल जाते हैं कि
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