Book Title: Kadve Such
Author(s): Suvandyasagar
Publisher: Atmanandi Granthalaya

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Page 12
________________ में नहीं आता हैं कि इन्होंने गृहत्याग करके कौनसे विकल्प छोड़े हैं ? उनकी दिनचर्या देखकर कही से ऐसा नहीं लगता है कि उन्हें वैराग्य अथवा त्याग शब्द का अर्थ भी समझता हो। त्यागी की शोभा यह बात सुस्पष्ट है कि किसी भी त्यागी की शोभा त्याग में है, आडम्बर, वैभव और भोगों में नहीं! यह तथ्य भूलकर सुखशीलता के कारण समाचारपत्र, टीवी, मोबाईल, कम्प्युटर, मोटर, तेल, नॅपकीन आदि संयमघाती वस्तुओं के प्रयोग में सुख खोजनेवाले इन सुविधाप्रधानियों को स्वयम्भू स्तोत्र के इस श्लोक का गंभीरता से चिन्तन करना चाहिये - स्वास्थ्यं यदाऽऽत्यन्तिकमेष पुंसां, स्वार्थो न भोगः परिभङ्गात्मा । तृषोऽनुषङ्गान्न च तापशान्ति-रितीदमाख्यद् भगवान् सुपार्श्वः।।३१।। कवि भूधरदास वैराग्य भावना में इसका भावार्थ कहते हैं - भोग बुरे भव रोग बढ़ावै, बैरी हैं जग जीके । बेरस होय विपाक समय अति, सेवत लागें नीके । वज्र अगनि विषसे, विषधरसे, ये अधिके दुखदाई । धर्म रतन के चोर चपल अति, दुर्गति-पंथ सहाई।।११।। जैन व्रताचरण तो भोगोंसे निवृत्ति के लिये है, भोगोंमें प्रवृत्तिके लिये नहीं । जो मनमें राग होते हुए भी किसी लौकिक इच्छासे त्यागी बन जाता है वह व्रती नहीं है । (कार्तिकेयान्प्रेक्षा टीका)-३२९, पृष्ठ-२३६) फिर जिसकी लौकिक इच्छाएँ जीवित है वह मनि कैसे कहलाया जा सकता हैं? ऐसे लोग साधु संस्था में आकर भी अपनी चित्तवृत्ति और इन्द्रियां वश में न होने के कारण अनेक प्रकार की उच्छृखल प्रवृत्ति करने लग जाते हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये नाना प्रकार के साधन जटाकर साध आश्रम को गृहस्थ आश्रम से भी अधिक रंगीला बनाना चाहते हैं । जो कार्य एक अच्छे से गृहस्थ के लिए भी अनुचित माने गये हैं उन्हें भी करने से बाज नहीं आते और वे उनके ऐब (दोष) लोगों की दृष्टि में खटकने न लग जाये इसलिए अनेक प्रकार के बनावटी जादू-टोना, यन्त्र, मन्त्र, गण्डा, ताबीज बना देकर जनता को अपना भक्त बनाये रखने की कोशिश करते हैं । इन ऐसे लोगों को पाखण्डी समझना चाहिये और इन पाखण्डियों का साथ देना, इन्हें भले बताना वगैरह सब पाखण्डी मूढ़ता है अर्थात् बुरी बात है । क्योंकि ऐसे लोगों का समर्थन करने से मार्ग दृषित हो जाता है और इन्हें प्रोत्साहन मिलता है तो ये और भी घमण्ड में आकर निरर्गल प्रवृत्ति करने लग जा सकते हैं । (मानव धर्म - पृष्ठ ३८) अतिशय दुर्लभ संयम पाकर उसे बिगाड़ने के समान बड़ा अनर्थ दूसरा नहीं है। इसलिए गणिनी आर्यिका ज्ञानमती का कहना रहता है कि "दर्लभता से मानव पर्याय मिलने के बाद न जाने कितने जन्मों के पुण्य के फलस्वरूप जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की जाती है। यदि इस अवस्था में भी पाप से न डरा गया तो अनमोल रत्न को गहरे समुद्र मे फेकने जैसी स्थिति होगी।" (गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ - पृष्ठ ४८) नमोस्तु शासन के शत्रु भावसंग्रह में कहा है - णिग्गंथं पव्वयणं जिणवरणाहेण अक्क्खियं परमं । तं छंडिऊण अण्णं पवत्तमाणेण मिच्छत्तं ।।१५२।। अर्थ : जिनेन्द्रदेवने परिग्रह रहित होने का ही उपदेश दिया है । ऐसे उत्कृष्ट उपदेश की अवहेलना करके स्वेच्छा-प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व है । इसलिए गणधराचार्य कुन्थुसागर समझाते हैं - बड़े से बड़ा व्रत भी तुमने धारण कर लिया, लोक दिखावे के रूप में और फिर नाना प्रकार के दोष लगा रहे हैं, अतिचार लगा रहे हैं और पंचम काल को दोष दे रहे हैं। अरे पंचम काल-पंचम काल में क्या है ? कुछ बदला हैं क्या? बताओ, पंचम काल में क्या बदला हैं? पानी गरम हो गया क्या ? अग्नि ठंडी हो गई क्या ? सूर्योदय पश्चिम में हो रहा है क्या ? सूर्यास्त पूर्व में हो रहा है क्या ? नहीं, कुछ भी नहीं बदला | तो आचार्य कहते हैं - अरे पागलो | काल को दोष मत लगाओ, थोड़ा सा अपने व्रतों को निरतिचारपूर्वक पालन करने की कोशिश करो । (स्याद्वाद केसरी - पृष्ठ २५५) अत: दुर्गति से बचने के लिये मुनि-आर्यिका-ऐलक-क्षुल्लक कड़वे सच ................... . - कड़वे सच ... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ८

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