Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [८ ] भावार्थ---काष्ठ आदिकी ज्वाला-रहित अग्नि, अग्नि की ज्वाला, कंडे की अथवा भरसांय की गरम राख में रहनेवाले अग्नि कम्म, उल्काकीअग्नि, आकाशीय अग्नि-कण वजकी अग्नि, विद्युत् की अग्नि ये तथा अन्य भी अग्निकाय जीवों के भेद सूक्ष्म बुद्धि से जानना चाहिये । ___ “अब वायुकाय जीवों के भेद कहते हैं।" उब्भामग-उक्कलिया, मंडलि-मह-सुद्ध-गुंजवाया य । घणतणु-वायाईया, भेया खल वाउकायस्त ॥७॥ (उचभामग) उद्भ्रामक-तृण आदिको आकाश में उड़ानेवाला वाय, (उकलिया) उत्कलिका-नीचे पहने वाला वाय,जिससे धूलि में रेखायें होजाती हैं। (मंडलि) गोलाकार बहने वाला वायु, (मह) महावातप्रान्धी, (सुद्ध) शुद्ध-मन्दगयु, (गुचवाया य) और गुञ्जवायु -जिसमें गूंजनेकी आवाज होती है, (घण तणवायाईया) घनशत,तनुवात श्रादि, (वाउकायस्स) वायुकायके (भेया) भेद हैं ॥७॥ - भावार्थ-आकाशमें ऊंचा बहने वाला, नीचे "बहने वाला, गोलाकार बहने वाला, श्रान्धी, मन्द-वायु, गुञ्जारव करने वाला वायु, घनवात, For Private And Personal Use Only

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