Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३२ ] हुए, ये चौदह पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के होते हैं, इस तरह अट्ठाइस हुए; जलचर, खेचर तथा स्थलचर के तीन भेदः - चतुष्पद, उरः परिसर्प तथा भुजपरिसर्प, ये प्रत्येक संमूच्छिम और गर्भज होने से दस भेद हुए; ये दसों पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के हैं, इसलिये बीस भेद हुए, इनमें पूर्वोक्त अट्ठाइस भेदों के मिलाने पर तिर्यञ्चों के ४८ भेद होते हैं। नारक जीवों के सातभेद कह चुके हैं, वे पर्याप्त तथा अपर्याप्त रूप से दो तरह के हैं, इस तरह नारक जीवों के चौदह भेद होते हैं। देवोंके १६८, मनुष्यों के ३०३, तिर्यंचों के ४८ और नारकों के १४ भेद, इन सबको मिलाने से ५६३भेद, संसारी जीव के हुए । "अब सिद्ध जीवों के भेद कहते हैं " सिद्धा पनरसभेया, तित्थ अतित्थाइ सिद्ध भेएणं । एए संखेवेणं, जीवविगप्पा समक्खाया ॥२५॥ (तित्थ अतित्थाइ सिद्ध भेएणं) तीर्थङ्कर - सिद्ध, अतीर्थङ्कर सिद्ध आदि भेदों से, (सिद्धा) सिद्धजीवों के ( पनरस भैया) पन्दरह भेद हैं, (संखेवेणं) संक्षेप से, (एए) ये पूर्वोक्त, (जीवविगप्पा ) जीवविकल्प - जीवों के भेद, (समक्खाया) कहे गये ||२५|| For Private And Personal Use Only

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