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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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1348
eriksa
जीव विचार
भ
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श्रीमद्विजयानन्दसूरिभ्यो नमः।
जीवविचार।
रचयिताश्रीशान्तिसूगि
अनुवादकवेदान्ततीर्थ ६० ब्रजलाल जी।
प्रकाशकश्रीमात्मानन्द-जैन-पुस्तक-प्रचारक-मण्डल,
रोशनमुहल्ला , आगरा।
मुद्रकसत्यव्रत शम्मी शान्ति प्रेस, आगरा।
वीर सं० २४१३. वि० सं० १९८५)
तृतीयावृत्ति । शक सं० १८५०. प्रात्म सं० ३३.)
[मूल्य पाँच पाना
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* जीव विचार. *
हिन्दी भाषानुवाद सहित.
"बिना किसी विघ्न के इस ग्रन्थके बनानेका काम पूरा हो जाय इसलिये ग्रन्थकार मङ्गलाचरण करते हैं" ।
भुत्रणपत्रं वीरं,
नामऊण भणामि अबुहबोहत्थं । जीवसरूवं किंचिवि,
जह भणियं पुव्वसूरीहिं ॥ १ ॥
(भुवईचं ) संमार में दीपक के समान, (वीरं) भगवान् महावीर को, (नमिऊण) नमस्कार करके, (अबोहत्थं) अज्ञलोगोंको ज्ञान कराने के लिये, (पुण्वसूरीहिं) पुराने आचार्यों ने, (जहर्भाणियं) जैसा कहा है वैसा, (जीवसवं) जीवका स्वरूप, (किंचिचि) संक्षेपसे, (भणामि ) मैं कहता हूँ ॥ १ ॥
प्रश्न – जीवका स्वरूप जानने से क्या लाभ है ? उत्तर- उनको हम अपनी आत्मा के समान समझ
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[ २ ] कर उनसे बर्ताव करें-उनकोतकलीफन पहुँचावें।
प्र०-यदि हम उनको सतावेंगे तो क्या होगा?
उ०-वे भी हमें मतावेंगे-बदला लेंगे, इस वक्त कमजोर होने के सबब से बदला न ले सकेंग तो दूसरे जन्म में लेंगे। प्र०-भगवान् को भुवन-प्रदीप क्यों कहा ?
उ० -जैसे दीपक घट पट आदि पदार्थों को प्रकाशित करता है वैसे भगवान् सारे संसार के पदार्थों को प्रकाशित करते हैं-खुद जानते हैं तथा समवसरण में औरों को उपदेश देते हैं-इसलिये उनको भुवनप्रदीप कहते हैं।
प्र०-यहां अज्ञ किनको समझना चाहिये? उ०-जोलोग जीवके स्वरूप को नहीं जानते उनको। प्र०-पुराने प्राचार्य कौन हैं ? उ०-गौतम खामी, सुर्मा स्वामी आदि ।
"अब जीव के भेद कहते हैं" जीवा मुना संसा,
रिणो य तसथावरा य संसारी । पुढवी-जल-जलण-वाऊ,
वणस्सई थावरा नेया ॥२॥
१-शास्त्र का फरमान है कि-"पढमं नाणं तो दया, एवं चिटई सव्वसंजए। अन्नाणीकिंकाही ? किंवा नाहीय सेव पावगं ?" पहले ज्ञान होगा तब ही अहिंसा धर्म का पालन हो सकता है।
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[ ३ ] ( जीवा ) जीव, ( मुत्ता ) मुक्त, (य) और (संसारिणो) संसारी हैं (तस) त्रस जीव (य) और (थावरा) स्थावर जीव (संसारी) संसारी हैं (पुढवी जल जलण वाऊ वणस्सई) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिको (थावरा) स्थावर (नेया) जानना ॥२॥
भावार्थ-जीवके दो भेद हैं मुक्त और संसारी संसारी जीव के दो भेद हैं:-त्रस और स्थावर। स्थावर जीव के पांच भेद हैं:-पृथ्वीकाय, जलकाय-अपकाय अग्निकाय, तेजःकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय। प्र०-जीव किसको कहते हैं ?
3०-जो प्राणोंको धारण करे । प्राण दो तरह के हैं भाव प्राण और द्रव्य प्राण चेतनाको भाव-प्राण कहते हैं। पांच इन्द्रियाँ, प्रांख,जोभ,नाक,कान और त्वचा त्रिविध-बल मनोबल, वचनबल और कायवल श्वासच्छास और आयु ये दम द्रव्य प्राण हैं।
प्र०-मुक्त किसको कहते हैं ?
उ०-जिसका जन्म और मरण न होता हो-जो जीव जन्म-मरण से छूट गया हो।
प्र०-संसारी किसको कहते हैं ? उ०-जो जीव जन्म-मरण के चक्कर में फंसा हो। प्र०-त्रस किसको कहते हैं ?
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उ.-जो जीव, सर्दी-गरमी से अपना बचाव करने के लिये चल-फिर सके, वह त्रस ।
प्र०-स्थावर किसको कहते हैं ? उ०-जो जीव सर्दी-गरमी से अपना बचाव करने के लिये चल-फिर न सके, वह स्थावर। प्र०-पृथ्वीकाय आदि का क्या अर्थ है ?
उ.-कायका अर्थ है शरीर जिस जीव का शरीर पृथ्वी का हो, वह पृथ्वीकाय; जिसका शरीर जलका हो, वह जलकाय; जिसका अग्निका हो, वह अग्निकाया जिसका वायुकाहो, वह वायुकाय;जिसका वनस्पति का हो, वह वनस्पतिकाय।
"दो गाथाओं से पृथ्वीकाय के भेद कहते हैं" फलिहमणि-रयण-विद्दुम-,
हिंगुल-हरियाल-मणसिल-रासिंदा । कणगाइ-ध उसेढी,
वनिअ-अरणेट्टय-पलेवा ॥३॥ अब्भय-तूरी-ऊसं, मट्टी-पाहाण-जाइओ णेगा। सोवीरंजण-लूणा,--इ पुढवि-भेआइ इच्चाई ॥४॥ __ (फलिह) स्फटिक, (मणि) मणि-चन्द्रकान्त श्रादि (रयण ) रन-वजकर्केतन आदि, (विद्दुम) मूंगा,
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[ ५ ] (हिंगुल) हिंगुल - ईंगुर, (हरियाल) हरताल, (मणसिल) मैनसिल मनःशिला, (रसिद) रसेन्द्र - पारा-पारद (कागा घाउ) कनक श्रादि धातु-सोना, चांदी, ताम्बा. लोहा, रांगा, सीसा और जस्ता, (सेढ़ी) खटिकाखड़िया, (वन्निका) वर्णिका - लाल रङ्ग की मिट्टी, (अरण्य) अरणे हक- पत्थरों के टुकड़ों से मिली हुई सफेद पट्टी, (पलेचा) पलेवक -एक किस्मका पत्थर ॥३॥ (अन्भय) अभ्रक अबरक, (तूरी) एक किस्म की मिट्टी, (ऊस) चार भूमिकी - ऊसरकी मिट्टी, (मट्टी पाहाण जाइयो रोगा) मिट्टी और पत्थर की अनेक जातियां (सोवीरं जण) सुरमा, ( लूणाई ) लवण- नमक, (इच्चाई) इत्यादि ( उढवि भेआई) पृथ्वी काय जीवों के भेद हैं ॥ ४ ॥
भावार्थ- ह्फटिक, मणि, रत्न, मूंगा, हिंगलू, हरताल मैनसिल, पारा, सोना, चान्दी, ताम्बा, लोहा, रांगा, सीसा शीशा, जस्ता, खड़िया, लाल रंगकी मिट्टी, पाषाणके टुकड़ोंसे मिली हुई सफेद मिट्टी, पलेवक नामक पत्थर, अवरक, तूरी नामक मिट्टी, ऊमर की मिट्टी और भी काली, पीली आदि रंग की मिट्टी तथा पत्थर, सफेद, काला, लाल रंगका सुरमा, सांभर आदि नमक, इस प्रकार और भी बहुत से पृथ्वीकाय जीवोंके भेद समझना चाहिये । प्र० - क्या इन सोने-चान्दी के गहनों में भी जीव है ?
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[ ६ ] उ०-नहीं, जब तक सोना-चान्दी खानमें रहता है । तबतक उसमें जीव रहता है, खानसे निकालने पर गलाने से जीव नष्ट हो जाता है। इस तरह पत्थरों को खानसे निकालने तथा मिहियों को पैरों तले कुचलने आदि से भी जीव नष्ट होते हैं।
"अब जलकाय के जीवों के भेद कहते हैं।" भोमंतरिक्ख-मुदगं,
ओसाहिम-करग-हरितणू-महिआ। हुंतिघणोदहिमाई,
भेआ णेगा य आउस्स ॥ ५॥ (भोम) भूमिका-का, तालाब आदिका जल, (अंतरिक्ख मुदगं) अन्तरिक्षका-आकाश का जल (ोसा) प्रोस, (हिम) बर्फ, (करग)ोले, (हरितण) हरित वनस्पति के खेतमें बोये हुए गेहूँ, जव आदि के-बालोंपर जो पानी के बूद होते हैं, वे,(महिया) महिमा-छोटे छोटे जलके कण जो बादलोंसे गिरते हैं, (घणोदहिमाई) घनोदधि आदि, (अाउस्स) अप. काय जीव के, (भेश्रा णेगा) अनेक भेद, (हुँति) होते हैं ॥॥ __ भावार्थ-- कूमा, तालाब आदिका पानी, वर्षा का पानी प्रोस का पानी, वर्फ का पानी, प्रोलों का पानी, खेतकी वनस्पतिके ऊपर के जलीय कण,
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[ ७ ] आकाश में बादलोंके घिरनंपर कभी कभी सूक्ष्म जल तुषार गिरते हैं, वे, तथा घनोदधि ये सब, तथा और भी अप काय जीव के भेद हैं। प्र०-घनोदधि किसे कहते हैं ? उ०-स्वर्ग और नरक-पृथ्वी के आधार-भूत जलीयपिण्डको।
"अग्निकायजीवों के भेद कहते हैं ।" इंगाल-जाल-मुम्मुर,--
उक्कासणि-कणग-विज्जुमाईआ। अगणिजिआणं भेआ,
नायव्वा निउणबुद्धीए ॥६॥ (इंगाल) अंगार-ज्वालारहित काष्ठकी अग्नि, (जाल) ज्वाला, (मम्मर) कण्डेकी अथवा भरसाय की गरम राख में रहनेवाले अग्नि-कण, (उक्का) उल्का-अाकाशसे जो अग्निकी वर्षा होती है वह, (अमणि) अशनि-बजकी अग्नि, (कणग) आकाशमें उड़नेवालें अग्नि-कण, (विज्जुमाईश्रा) विजली की अग्नि इत्यादि, (अगणिजिाणं) अग्निकाय जीवों के (भेडा)भेद (निउणबुद्धीए) निपुण-बुद्धिसे-सूक्ष्मबुद्धिसे (नायव्वा) जानना ॥६॥
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[८ ] भावार्थ---काष्ठ आदिकी ज्वाला-रहित अग्नि, अग्नि की ज्वाला, कंडे की अथवा भरसांय की गरम राख में रहनेवाले अग्नि कम्म, उल्काकीअग्नि, आकाशीय अग्नि-कण वजकी अग्नि, विद्युत् की अग्नि ये तथा अन्य भी अग्निकाय जीवों के भेद सूक्ष्म बुद्धि से जानना चाहिये ।
___ “अब वायुकाय जीवों के भेद कहते हैं।" उब्भामग-उक्कलिया,
मंडलि-मह-सुद्ध-गुंजवाया य । घणतणु-वायाईया,
भेया खल वाउकायस्त ॥७॥ (उचभामग) उद्भ्रामक-तृण आदिको आकाश में उड़ानेवाला वाय, (उकलिया) उत्कलिका-नीचे पहने वाला वाय,जिससे धूलि में रेखायें होजाती हैं। (मंडलि) गोलाकार बहने वाला वायु, (मह) महावातप्रान्धी, (सुद्ध) शुद्ध-मन्दगयु, (गुचवाया य) और गुञ्जवायु -जिसमें गूंजनेकी आवाज होती है, (घण तणवायाईया) घनशत,तनुवात श्रादि, (वाउकायस्स) वायुकायके (भेया) भेद हैं ॥७॥ - भावार्थ-आकाशमें ऊंचा बहने वाला, नीचे "बहने वाला, गोलाकार बहने वाला, श्रान्धी, मन्द-वायु, गुञ्जारव करने वाला वायु, घनवात,
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[ ९ ] तनुवात, ये सब, तथा और भी वायुकाय-जीवों के भेद हैं।
प्र०-घनवात और तनुगत में क्या फर्क है ?
उ०-घनवात जमे हुए घी की तरह गाढ़ा है और तनुवात तपाये हुए घो की तरह तरल है; घनवात वर्ग तथा नरक-पृथ्वी का प्राधार है और तनुवात नरक-पृथ्वी के नीचे है ।।
"वनस्पतिकाय जीवों के भेद कहते हैं।" साहारण-पत्तेआ,
वणसइजीवा दुहा सुए भणिआ। जेसिमणंताणं तणु,
एगा साहारणा तेऊ ॥८॥ (सुए) श्रुत में-शास्त्र में, (वणसह जीवा) वनस्पति-काय के जीव, (साहारण पत्तेत्रा) साधारण
और प्रत्येक ऐसे, (दुहा) दो प्रकारके भणिया) कहे गये हैं, (जेसिमताणं) जिन अनन्त जीवों का (एगा) एक (तणु) शरीर हो, (तेज) वे (साहारणा) साधारण कहलाते हैं ॥३॥
भावार्थ--सिद्धान्त में वनस्पतिकाय जीवों के दो भंद कहे गये:-साधारण-वनस्पति-काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय। जिन अनन्त जीवोंका शरीर एक हो वे जीव, 'साधारण वनस्पतिकाय' कहलाते हैं।
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[१०]
"दो गाथाओं से साधारण - वनस्पतिकाय के भेद कहते हैं ।' कंदा-अंकुर - किसलय, -- परणगा-सेवाल - भूमि फोडा अ । अल्लय-तिय- गज्जर-मो, --
त्वत्थुला थेग - पल्लंका ॥ ९ ॥
कोमलफलं च सव्वं, गूढसिराई सिणाइपत्ताइं । थोहरि - कुंआरि-गुग्गुलि,
गलोय - पमुहाइ - छिन्नरुहा ॥ १० ॥
(कंदा) कंद - आलू, सूरन, मूली का कंद आदि (अंकुर) अंकुर, (किसलय) नये कोमल पत्ते ( पगा सेवाल) पाँच रंगकी फुल्लि जो कि वासी अन्न में पैदा होती है, और सिवार (भूमि फोडा) भूमिस्फोट - वर्षा ऋतु छत्रके आकार की वनस्पति होती है, (अल्लयतिप) अद्रक, हल्दी और कर्चूक, ( गज्जर ) गाजर, (मोत्थ) नागरमोथा, (बन्धुला ) बथुआ, ( थेग) एक किस्म का कन्द, (पल्लंका) पालखी - शाकविशेष ॥ ६ ॥ (कामलफलं च सव्वं) सब तरह के कोमल फल- जिन में बीज पैदा न हुये हों, (गूढ़ सिराई सिणांह पत्ताइं ) जिनकी नसें प्रकट न हुई हों, वे, तथा सन यादिके
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[ ११ ]
पत्ते, (धोहरि) थहर, (कुआरि ) घीकुवार, गुग्गुलि) गुग्गुल, (गलोप) गिलोय - गुर्च, (पमुहाइ ) आदि, (छिन्नरुहा) छिन्नरुह - काटनेपर भी उगनेवाली कुछ वनस्पतियाँ ॥१०॥
भावार्थ- बालू, सूरन. मूली का कन्द, अंकुर, नये कोमल पत्ते, और फुल्लि जो कि बासी अन्न में पांच रंग की पैदा होती है और सिवार, वर्षा ऋतु में पैदा होने वाली छत्राकार वनस्पति, अद्रक, हल्दी, कर्चूक, गाजर, नागरमोथा, बथुआ, थेग नामक कंद, पालकी, जिनमें बीज पैदा न हुये हों, ऐसे कोमल फल, जिनमें नसें प्रकट न हुई हों. वे, और सन आदि के पत्ते, थूहर, घीकुवार, गुग्गुल तथा काटने पर बो देने से उगने वाली गुर्च आदि वनस्पतियां, ये सब साधारण वनस्पतिकाय कहलाते हैं, इनको अनन्तकाय और बादर निगोदके जीव भी कहते हैं। यहां यह समझना चाहिये कि ये सब गीली वनस्पतियाँ ही सजीव होती हैं, सूखी नहीं । इच्चाइणो अगे, हवंति भेया अणतकायाणं । तेसिं परिजाणरणत्थं, लक्खणमेयं सुए भणियं । ११
*
( इच्चाइणो ) इत्यादि, (गे) अनेक, (भेया) भेद, (अणनकायाणं) अनन्तकाय जीवोंके, (हवंति) हैं, (तेसिं) उनके, (परिजाणणत्थं) अच्छी तरह जानने के
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[ १२ ]
लिये, (सुए) श्रुति में - शास्त्र में, (एयं) यह (लक्खणं) लक्षण, (भणियं ) कहा है ॥ ११ ॥
भावार्थ -नव और दस की गाथाओं में जो अनन्तकाय के भेद गिनाये हैं, उनसे भी अधिकभेद हैं, उन सबको समझाने के लिये सिद्धान्त में अनन्तकाय का लक्षण कहा है ।
"अनन्तकाय का लक्षण ।"
गूढसिरसंधिपव्वं, समभंग- महीरंग च छिन्नरुहं । साहारणं सरीरं, तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥ १२ ॥
जिनकी (सिर) नसें, ( संधि) सन्धियां, और (पव्वं पर्व - गांठें (गूढ़) गप्त हों-देखने में न आवें, (समभंग) जिनको तोड़ने से समान टुकड़े हों, (अहीर गं) जिनमें तन्तु न हों, (छिन्नरुहं) जो काटनेपर भी ऊगें ऐसी बनस्पतियां - फल, फूल, पत्ते, मूलियां आदि, (साहारणं) माधारण, ( सरीरं ) शरीर है ( तव्विवरी च ) और उससे विपरीत, (पत्तेयं ) प्रत्येकवनस्पतिकाय है ॥१२॥
भावार्थ अनन्तकाय वनस्पति उसको समझना चाहिये "जिस वनस्पतिमें नसें, सन्धियां और गांठें न हों; जिसको तोड़ने से समान भाग हो; जिसमें
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[ १३ ] तन्तु न हो; जिमको काटकर बो देने से वह ऊगे;" जिसमें उक्त लक्षण न हो, उस वनस्पतिको 'प्रत्येकवनस्पति समझना चाहिये।
"अब प्रत्येक-वनस्पतिकाय के लक्षण तथा भेद कहते हैं ।" एगसरीरे एगो,
जीवो जेसि तु ते य पत्तेया। फल-फूल-छल्लि-कट्टा,
मूलगपत्ताणि बीयाणि ॥ १३ ॥ (जेसिं) जिनके (एगसरीरे) एक शरीरमें (एगो जीवो) एक जीव हो (ते तु) वे तो (पत्तेया) प्रत्येक वनस्पतिकाय हैं; उनके सातभेद हैं (फल, फूल, छल्लि कट्ठा) फल, पुष्प, छाल, काष्ठ, ( मूलग ) मलियाँ, (पत्ताणि) पत्ते, और (बीयाणि) बीज ॥१३॥ ___भावार्थ-जिन वनस्पतियों के एक शरीर में एक जीव हो अर्थात् एक शरीरका एक ही जीव स्वामी हो, उन वनस्पतियोंको प्रत्येक-वनस्पतिकाय समझना चाहिये प्रत्येक वनस्पतिकाय जीवके सात भेद हैं:-फल, पुष्प,छाल, काष्ट,मलियां, पत्ते और बीज ।
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[ १४ ]
"पृथ्वी काय आदि जीवों के विषय में कुछ विशेष कहते हैं" पत्तेयं तरुमोत्तुं, पंचवि पुढवाइणो सयललौए । सुहुमा हति नियमा, अंतमुहुत्ताउ हिस्सा | १४ (पत्तेयं तरु) प्रत्येक वनस्पतिकायको (मोत्त) छोड़कर, (पंचवि) पांचों ही (बुढवाइणो) पृथ्वीकाय आदि, (सुमा) सूक्ष्म-स्थावर (सयल लाए) सम्पूर्ण लोक में (हवांत) विद्यमान हैं -रहते हैं और वे (नियमा) नियमसे (अन्तमुहुत्ताउ) अन्तर्मुहूर्त आयुष्यवाले होते हैं, तथा (हिस्सा) अदृश्य हैं- आंख से देखने में नहीं आते ॥ १४ ॥
भावार्थ- प्रत्येक वनस्पतिकायको छोड़कर पृथ्वीकाय आदि पांचों ही सूक्ष्म-स्थावर सम्पूर्ण लोक में भरे पड़े हैं। उनकी आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है तथा वे इतने छोटे हैं कि आंख उन्हें नहीं देख सकती । प्र० अन्तर्मुहूर्त किसे कहते हैं ?
उ०- नव समय से लेकर, एक समय कम, दो घड़ी जिनना काल अन्तर्मुहूर्त कहलाता है । नव समयों का अन्तर्मुहूर्त सबसे छोटा अर्थात् जघन्य है, और दो घड़ी में एक समय कम हो, तो वह अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट है, बोचके कालमें नव समय से आगे एक एक समय बढ़ाते जांय तो, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक असंख्य अन्तर्मुहूर्त होते हैं।
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[१५]
प्र० - समय किसे कहते हैं ?
उ०- उस सूक्ष्म कालको, जिसका कि सर्वज्ञ की दृष्टि में भी विभाग न हो सके ।
प्र० - मुहूर्त किसे कहते हैं ?
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उ०-दो घड़ी अर्थात् अड़तालीस मिनिटों का मुहूत होता है ।
विशेष- प्रत्येक वनस्पतिकाय नियमसे वादर हैं, पाँच स्थावर, सूक्ष्म और वादर दो तरह के हैं, सबको मिलाकर ग्यारह भेद हुये, ये ग्यारह पर्याप्त और अपरूप से दो तरह के हैं, इस तरह स्थावरजीव के बाईस भेद हुये ।
प्र ० - पर्याप्त जीव किसे कहते हैं ?
उ०- जोजीव अपनी पयाप्तियां पूरी कर चुकाहो, उसे प्र० - अपर्याप्त जीव किसे कहते हैं ?
उ०- जो जीव अपनी पर्याप्तियां पूरीन कर चुका हो उसे ।
प्र० -पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उ०- जीवकी उस शक्तिको जिसके द्वारा जीव, आहार को ग्रहण कर रस, शरीर और इन्द्रियों को बनाता है तथा योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनको बनाता है ।
संख-कबड्डय-गंडुल, जलोयचंदणग-अलस-लहगाई ।
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[ १६ ] मेहरि-किमि-पूयरगा,
बेइंदिय माइवाहाई ॥ १५ ॥ (संख) शङ्ख-दक्षिणावर्त श्रादि, (कवड्डय) कपर्दक-कौड़ी, (गडुल) गण्डोल पेटमें जो मोटे कृमि मल्हपपैदाहोने हैं, (जलोय) जलौका-जोंक, (चंदणग) चन्दनक-अक्ष-जिसके निर्जीव शरीर को साधु लोग स्थापनाचार्यमें रखते हैं, (अलम) भूनाग जो वर्षा ऋतुमें सांप सरीखे लंबे लाल रंगके जोव पैदा होते हैं, (लहगाई) लहक-लालीयक-जो बासी रोटी आदि अन्न में पैदा होते हैं, (मेहरि)काष्ट के कीड़े, (किमि) कृमि-पेटमें, फोड़ेमें तथा बवामीर आदिमें पैदा होते हैं, (पूयरगा) पूनरक-पानी के कीड़े, जिनका मुंह काला और रंग लाल वा श्वेत-प्राय होता है, (माहवाहाई) मातृवाहिका-जिसकी गुजरात में अधिकता है और वहां के लोग चूडेल कहते हैं, इत्यादि (बेइन्दिय) द्वीन्द्रिय जीव हैं ॥१५॥
भावार्थ--जिन जीवों के त्वचा ओर जीभ हो, दूमरी इन्द्रियां न हों, वे जीव द्वीन्द्रिय कहलाते हैं, जैसे शंख कौड़ी, पेट के जीव, जोंक, अक्ष, भूनाग, लालीयक, काष्टकीट, कृमि, पूतरक और मातृवाहिका श्रादि।
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[ १७ ]
"
"अब दो गाथाओं से त्रीन्द्रिय जीव के भेद कहते हैं" गोमी - मंकण - जूआ, पिपीलि- उद्देहिया य मक्कोडा | इल्लिय- घयभिल्लीओ, सावय- गोकीड जाइओ ॥ १६ ॥ गद्दहय- चोरकीडा, गोमय कीडा य धन्नकीडा य । कुंथु गुवालिय-इलिया, तेंइदिय इदगावाई ॥१७॥ (गोमी) गुल्मि - कानखजूरा, (मंकल) मत्कुणखटमल, (जुआ) यूका - जँ, (पिपीलि) पिपीलिकाचींटी, (उद्देहिया) उपदेहिका - दीमक, (मक्कोड़ा) मस्कोटक-मकोड़ा, (इल्लिय) इल्लिका - अल्ली, जो अनाज में पैदा होती है, (घयमिल्लीओ) घृतेलिकाजो घी में पैदा होती है, (सावय) चर्म - यूका- जो शरीर में पैदा होती है, जिससे भविष्य में अनिष्ट की शङ्का की जाती है, (गोकीड जाईओ) गोकीट की जातियां अर्थात् पशुओं के कान आदि अवयवों में पैदा होने वाले जीव ||१६|| ( गद्दहय) गर्भक - गोशाला आदि में पैदा होने वाले सफेद रंगके जीव, (चोर कीडा) चोरकीट - विष्ठा के कीड़े, (गोमय कीडा) गोमयकोट - गोबर के कीड़े, (धन्नकीडा) धान्यकीटअनाज के कीड़े, (कुन्धु) कुन्धु - एक किस्म का कीड़ा, ( गुवालिय) गोपालिका-एक किस्म का अप्रसिद्ध जीव, (इलिया ) ईलिका-जो शक्कर और चावल में पैदा होती है, (इंदगोबाई) इन्द्रगोप जो वर्षा में
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[ १८ ] लाल रंग का जीव पैदा होता है जिसे पञ्जाबी चीजव्होटी और गुजराती गोकलगाय कहते हैंइत्यादि (तेइंदिय) त्रीन्द्रिय जीव हैं । १७॥ .
भावार्थ-जिन जीवों को सिर्फ शरीर, जीभ और नाक हो, उनको त्रीन्द्रिय कहते हैं, वे ये हैं:-कानखजरा,खटमल,जू,चींटी,दोमक,पानाजमें पैदा होने वाली अल्ली मकोड़ा,घी में पैदा होने वाला जीव, शरीर में पैदा होने वाली चर्म, गाय के कान
आदि में पैदा होने वाले कीड़े, गोशाला में पैदा होने वाले जीव, विष्ठा के कीड़े, गोचर के कीड़े, अनाज के कीड़े, कुन्थु, गोपालका, शक्कर और चावल में पैदा होने वाले जीव, इन्द्रगोप आदि ।
"चतुरिन्द्रिय जीवों के भेद कहते हैं" चउरिंदया य विच्छू,
डिंकुण-भमरा य भमरिया-तिड्डा । मच्छिय-डंसा-मसगा,
कंसारी-कविलडोलाई ॥१८॥ (विच्छू ) बिच्छू ,(ढिंकुण)ढिंकुण-घुड़साल आदि में पैदा होता है,(भमरा)भ्रमर-भौंरा,(भमरिया) भ्रमरिका-बरें, (तिड्डा) टिड्डी-टीढ़ी,(मच्छिय) मक्षिकामक्खी, मधुमक्खी, (डंसा) दंश-डांस; (मसगा)
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[ १९ ] मशक-मच्छर, (कंसारी) कंसारिका- जो उजाड़ जगह में पैदा होती है, (कविलडोलाई) कपिलडोलकएक किस्म का जीव जिसे गुजराती खड़माँकड़ी कहते हैं, इत्यादि (चउरिंदिया) चतुरिन्द्रिय जीव हैं ॥ १८ ॥
भावार्थ - जिन जीवों को शरीर, जीभ, नाक और आँख हो, वे चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं, जैसे:-बिच्छू, घुड़साल में पैदा होने वाला ढिंकुण नामक जीव, भौंरा, बर्रे, मक्खी, मधुमक्खी, डांस, मच्छर, टीढ़ी, कंसारिका, कपिलडोलक आदि ।
"अत्र पञ्चेन्द्रिय जीवों के भेद कहते हैं" पंचिदियाय चउहा, नारय- तिरिया - मणुस्स - देवाय नेरइया सत्तविहा, नायव्वा पुढविभेषणं ॥२६॥
(पंचिंदिया) पञ्चेन्द्रिय जीव (चउहा ) चतुर्धा - चार प्रकार के हैं (नारय) नारक, (तिरिया) तिर्यञ्च (मणुस्स) मनुष्य (घ) और (देवा) देव, (नेरइया) नैरयिक - नरक में रहने वाले जीव (पुढविए) पृथ्वी के भेद से (सत्तविहा) सप्तविधा - सात प्रकार के (नायव्वा) जानना ॥१६॥
भावार्थ- पञ्चेन्द्रिय जीव के चार भेद हैं:- नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, भिन्नभिन्न सात स्थानों में पैदा होने के कारण नारक जीव सात प्रकार के
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[ २० ]
हैं, उन सात स्थानों के नरकों के नाम ये हैं: - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और तमस्तमप्रभा ।
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" पञ्चेन्द्रिय जीवों में नारकों के भेद कहकर अब चार गाथाओं से पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों भेद कहते हैं ।"
"पवेन्द्रिय तिर्यञ्च के भेद"
जलयर-थलयर - खयरा,
तिविहा पंचेंदिया तिरिक्खा य ।
सुसुमार मच्छ- कच्छव,
गाहा मगराइ जलचारी ||२०||
( जलघर ) जलचर, (थलयर) स्थलचर ( खयरा) खेचर (पञ्चेंदिया) पञ्चेन्द्रिय (तिरिक्खा) तिर्यञ्च (तिविहा) त्रिविध अर्थात् तीन प्रकार के हैं, (जलचारी) जल में रहने वाले (सुसुमार) शिशुमार - सुईस, जिसका आकार भैंस जैसा होता है, (मच्छ) मत्स्य - मछली, ( कच्छव) कच्छप - कछुआ, ( गाहा ) ग्राह - घड़ियाल, (मगराइ) मकर - मगर आदि हैं ॥ २० ॥
भावार्थ- पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के तीन भेद हैं:-जलचर स्थलचर और खेचर, जलचर जीव ये हैं:--सुईस, मछली, कछुआ, ग्राह, मकर आदि ।
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[ २१ ] " अब स्थलचर जीवों के भेद कहते हैं " चउपय-उरपरिसप्पा,
भुयपरिसप्पा य थलयरा तिविहा । गो-सप्प-नउल-पमुहा,
बोधव्वा ते समासेणं ॥२१॥ (थलयरा) स्थलचर जीव (तिविहा) त्रिविध अर्थात् तीन प्रकार के हैं; (च उपय) चतुष्पद-चार पैर से चलने वाले, (उरपरिसप्पा) उरःपरिसर्प-छातीसेपेट से चलने वाले (य) और (भुयपरिसप्पा) भुजपरिसर्प-भुजाओं से चलने वाले,(गो)गाय, (सप्प) साँप, (नउल) नकुल-न्योला, (पमुहा) प्रमुख-श्रादि (ते) वे (समासेणं) समास से-संक्षेप से (बोधव्वा) जानने ॥२१॥
भावार्थ-जमीन पर चलने वाले जीव-जिनको स्थलचर कहते हैं-तीन प्रकार के होते हैं, (१)चार पैर से चलने वाले गाय, भैस आदि; (२) पेट से चलने वाले सर्पादि, (३) भुजाओं से चलने वाले नकुल-न्योला अदि । क्रमशःइन तीनों को चतुष्पद, उरःपरिसर्प और भुजपरिसर्प कहते हैं।
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[ २२ ]
"अब खेचर जीवों के भेद कहते हैं "
खयरा-रोमय पक्खी, चम्पक्खी य पायडा चेव ।
नरलोगाओ बाहिं,
समुग्गपक्खी विययपक्खी ॥२२॥
(खरा) खेचर - श्राकाश में उड़ने वाले जीव (रोमय पक्खी रोमजपक्षी (य) और (चम्मय पक्खी) चर्मजपक्षी (पाडा ) प्रकट हैं- प्रसिद्ध हैं, (नरलोगाश्रो ) नरलोक से - मनुष्य लोक से ( बाहिं ) बाहर (समुग्गपक्खी) समुद्गपक्षी और (विययक्खी) तितपक्षी हैं ||२२||
भावार्थ - आकाश में उड़ने वाले तिर्यञ्च खेचर कहलाते हैं, उनके दो भेद हैं:- रोमजपक्षी और चर्मजपक्षी । रोम से जिनके पड्ड बने हैं वे रोमजपक्षी, जैसे तोता, हंस, सारस, आदि । चाम से जिनके पट्ट बने हैं वे चर्मजपक्षी, जैसे- चमगादड़ आदि । जहां मनुष्य का निवास नहीं है उस भूमि में दो तरह के पक्षी होते हैं: - समुद्गपक्षी और विततपक्षी । सिकुड़े हुए जिनके डब्बे के समान पत हों वे समुद्रपक्षी, जिनके पड्ड फैले हुए होंवे विवतपक्षी कहलाते हैं ।
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[ २३ ]
"तीन प्रकार के तिर्यञ्च कह चुके उनके प्रत्येक के दो दो भेद कहते हैं "
सव्वे जल-थल - खयरा, संमुच्छिमा गब्भया दुहा हुंति ।
कम्माकम्मगभूमि,
अंतरदीवा मणुस्सा य ॥२३॥
(स) सब (जलथलखयरा) जलचर, स्थलचर और खेचर (समुच्छिमा) सम्मूच्छिम, (गग्भया) गर्भज (दुहा) द्विधा - दो प्रकार के (हुति) होते हैं, (मगुस्सा ) मनुष्य (कम्माकम्मग भूमि) कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज (घ) और (अंतरदीवा) अन्तर्दीपवासी हैं ॥ २३ ॥
1
भावार्थ- पहले तिर्यञ्च के तीन भेद कहे हैं: - जलचर, स्थलचर और खेचर; ये तीनों दो दो प्रकार हैं; समूच्छिम और गर्भज । जो जीव, मा-बाप के बिना ही पैदा होते हैं, वे समूर्चिकम कहलाते हैं। जो जोव, गर्भ से पैदा होते हैं वे गर्भज । मनुष्य के तीन भेद हैं कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्त
निवासी । खेती, व्यापार आदि कर्म प्रधान भूमि को कर्मभूमि कहते हैं । उसमें पैदा होने वाले मनुष्य कर्मभूमि कहलाते हैं। कर्मभूमियां पन्दरह हैं, पांच भरत पांच ऐरावत और पांच महाविदेह | जहां खेती, व्यापार आदि कर्म नहीं होता उस भूमि को
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5.२४] अकर्मभूमि कहते हैं, वहां पैदा होने वाले मनुष्य अकर्मभमिज कहलाते हैं; अकर्मभूमियों की संख्या तीस है । वह इस प्रकार:-ढाई द्वीप में पाँच मेरु हैं, प्रत्येक मेरु के दोनों तरफ़ अर्थात् उत्तर तथा दक्षिण की ओर १ हैमवंत,२ ऐरण्यवंत,३ हरिवर्ष,४ रम्यक ५ देवकुरु और ६ उत्तरकुरु, इन नामों की छह छह भूमियां हैं, इन छह भूमियों को पांच मेरुओं से गुणने पर तीस संख्या होती है। अन्तर्वीप में पैदा होने वाले मनुष्य अन्तीपनिवासी कहलाते हैं, अन्तीपों की संख्या छप्पन है वह इस प्रकारःभरतक्षेत्र से उत्तर दिशा में हिमवान् नामक पर्वत है, वह पूर्व दिशा में तथा पश्चिम दिशा में लवणसमुद्र तक लम्बा है, इस की पूर्व तथा पश्चिम में दो दो दंष्टाकार भूमियां समुद्र के भीतर हैं, इस तरह पूर्व तथा पश्चिम की चार दंष्ट्रायें हुई। इसी प्रकार ऐरावतक्षेत्र से उत्तर शिखरी नामक पर्वत है, वह भी पूर्व तथा पश्चिम में समुद्र तक लम्बा है और दोनों दिशाओं में दो दो दंष्ट्राकार भूमियां समुद्र के अन्दर घुसी हैं, दोनों की आठ दंष्ट्रायें हुई,हरएक दंष्ट्रा में सात सात अन्तर्वीप हैं, सात को आठ के गुणने पर छप्पन संख्या हुई।
विशेष-कर्मभूमि,अकर्मभूमि और अन्तीप,ये सब ढाई द्वीपमें हैं। जम्बूद्वीप,धातकीखण्ड और पुष्करवर.
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द्वीपका आधा भाग, इनको ढाईद्वीप कहते हैं, इस ढाई द्वीप में ही मनुष्य पैदा होते हैं तथा मरते हैं, इसलिये इसको 'मनुष्यक्षेत्र' कहते हैं, इसका परिणाम पैंतालोस लाख योजन है। अकर्मभूमि और अन्तद्वीपमें जो मनुष्य रहते हैं, उन्हें 'युगलिया' कहते हैं, इसका कारण यह है कि स्त्री-पुरुषका युग्म-जोड़ा-साथ ही पैदा होता है और उनका वैवाहिक सम्बन्ध भी परस्पर ही होता है इनकी ऊंचाई आठसौ धनुषकी; और आयु, पल्योपमका श्रसंख्यातवां भाग जितनी है. पन्दरह कर्मभूमियां, तीस अकर्मभूमियां और छप्पन अन्तद्वीप, इन सबको मिलाने से एकसौ एक मनुष्य भूमियां हु इनमें पैदा होने से मनुष्यों के भी उतनेही भेद हुए. इन के भी पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो भेद हैं, इसलिये दो सौ दो भेद हुए. इन गर्भज मनुष्यों के मल, मूत्र, कफ आदि में जो मनुष्य पैदा होते हैं, वे संमूच्छिम कहलाते हैं तथा वे अपनी पर्याप्तिपूरी किये बिनाही मर जाते हैं; इनके संमूच्छिम मनुष्य के एकसौ एक भेदों के साथ दोसौ दोको मिलाने से मनुष्योंके तीन सौ तीन भेद होते हैं.
"
66
'अब चार प्रकार के देवताओंके भेद कहते हैं."
।
दसहा भवणाहिवई, विहा वाणमंतरा हुंति । जोइसिया पंचविहा, दुविहा वेमाणिया देवा ॥ २४॥
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[ २६ ] (भवणाहिबई)भवनाधिपति दवता, (दसहा) दशधा-दस प्रकारके हैं, (वाणमंतरा)वानमन्तर देवता, (अट्ठविहा) अष्टविधा-पाठ प्रकारके, (हँति) होते हैं, (जोइसिया)ज्योतिष्का-ज्योतिष्क देवता,(पँचविहा) पञ्चविधा-पांच प्रकार के हैं और (माणिया देवा) वैमानिक देवता, (दविहा) दो प्रकार के हैं ॥२४॥ भावार्थ-भवनपति देवताओंके दस भेद हैं;-१ - सुरकुमार, २ नागकुमार, ३ सुपर्णकुमार, ४विद्युत्कुमार, ५ अग्निकुमार, ६द्वीपकुमार,७ उदधिकुमार, ८ दिक्कुमार, ६ वायुकुमार, और १० स्तनितकुमार। वानमन्तर-चाणव्यन्तर-देवताओंके आठ भेद हैं:-१ पिशाच, २ भूत, ३ यक्ष,४ राक्षस, ५ किन्नर, ६ किंपुरुष, ७ महोरंग, और ८ गान्धर्व वाणव्यन्तर (वानमन्तर)के ये भी पाठ भेद हैं:-१अणपनी २पणपन्नी, ३ इसोवादो, ४ भतवादी, ५कन्दित, महा. कन्दित, ७ कोहण्ड और ८ पतङ्ग, ज्योतिष्क देवताओंके पांच भेद हैं:-१ चंद्र, २ सूर्य, ३ ग्रह, ४ नक्षत्र, और ५ तारा. वैमानिक देवता दो प्रकार के है:-१ कल्पोपपन्न, और २ कल्पातीत. कल्प अर्थात् आचार-तीर्थङ्करोंके पांच कल्याणकमें आना-जाना, उसकी रक्षा करने वाले देवता, 'कल्पोपपन्न' कह. लाते हैं. उक्त प्राचारके पालन करनेका अधिकार जिन्हें नहीं है, वे देव, 'कल्पातीत' कहलाते हैं.कल्पो.
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[ २७ ] पपन्न देवताओं के बारह लोक हैं. इसलिये स्थान के भेदसे उन देवोंके भी बारह भेद समझना चाहिये. बारह लोक ये हैं;-१ सौधर्म, २ ईशान, ३ सनत्कुमार, ४ माहेन्द्र, श्ब्रह्म, देलान्तक. ७ शुक्र, ८सहसार, हानत,१० प्राणत, ११ पारण और १२ अच्युत, कल्पातीत देवोंके चौदह भेद हैं; नववेयकमें रहनेवाले तथा पांच अनुत्तरविमानमें रहने वाले. नवग्रेवयकोंके नाम येहैं:-१ सुदर्शन, २ सुप्र. बुद्धि, ३ मनोरम, ४सर्वतोभद्र. ५ विशाल, ६ मुमनस,७ सौमनस ८ प्रियङ्कर, और ६ नन्दिकर.पांच अनुत्तरविमानोंके नाम ये हैं:-१ विजय, २ वैजयन्त, ३ जयन्त. ४ अपराजित. और ५ सर्वार्थसिद्ध. अब उक्त देवोंके स्थान रहने की जगह-संक्षेपमें कहते हैं; मेरु पर्वतके मूल में समतल पृथ्वी है, उससे नीचे रत्नप्रभा नामक प्रथम नरकका दल एकलाख अस्सी हजार योजन मोटा है, उसमें तरह प्रतर हैं, उन प्रतरों में बारह प्रान्तर-स्थान हैं,प्रथम और अन्तिम प्रान्तर-स्थानोंको छोड़कर बाकीके दस प्रांतर-स्थानों में, हर एक में एक एक भवनपति देवों के निकाय रहते हैं प्रत्येक निकायमें दक्षिणकी तरफ एक, और उत्तरकी तरफ एक, ऐसे दो इन्द्र होते हैं, इस तरह दस निकायों के बीस इन्द्र हुए. पहले कहा गया है कि रत्नप्रभाका दल एक लाख अस्सी हजार योजन मोटा है,ऊपर एक हजार और
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[ २८ ] नीचे एक हजार योजन पृथ्वीको छोड़कर बाकी के एकलाख अठहत्तर हजार योजनमें पूर्वोक्त तेरह प्रतर हैं, जिनमें कि दस प्रकार के भवनपति देव रहते हैं, ऊपर के बचे हुए एक हजार योजन में सौ योजन ऊपर, और सौ योजन नीचे छोड़ दिये जाने पर बाकी आठसौ योजन बचे, उनमें आठ व्यंतर निकायहैं। प्रत्येक निकायमें, भवनपति निकाय की तरह, दक्षिणमें एक, और उत्तरमें एक, ऐसे दो इंद्र रहते हैं. इस तरह अाठ व्यंतर निकायके सोलह इंद्र हुए. ऊपर जो सौ योजन छोड़ दिये गये थे, उनमें से दस योजन ऊपर, और दस योजन नीचे छोड दिये जाने पर अस्सी योजन बचे, उनमें पाठ प्रकार के वाणमन्तर देव रहते हैं। प्रत्येक निकायमें पहलेको तरह एक दक्षिण में, और एक उत्तरमें ऐसे दो इंद्र रहते हैं, इस प्रकार पाठ निकायोंके सोलह इंद्र हुए. दोनों प्रकार के व्यंतरोंके बत्तीस इंद्र हुए। इनमें भवनपतिके बीस इंद्रोंके मिलानेपर बावन इंद्र हुए. अब ज्योतिष्क देवोंके रहने की जगह कहते हैं पहले ज्योतिष्क देवोंके पांच भेद कह चुके हैं उनके और भी दो भेद हैं, एक 'चर' और दूसरे 'स्थिर'; मनुष्य क्षेत्र में जो ज्योतिष्क देव हैं, वे चर हैं, अर्थात् हमेशा घमते रहते हैं और मनष्य लोक से बाहर के ज्योतिष्क देव स्थिर हैं अर्थात् उनके विमान एकही जगह रहते हैं, जहां पर कि वे हैं। चंद्र, सूर्य,
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[ २९ ]
ग्रह, नक्षत्र और तारा, इन पांच ज्योतिष्क देवोंमें, चंद्र और सूर्य इन दोनोंकी इन्द्र पदवी है अर्थात् ये दोनों, ज्योतिष्कों में इंद्र कहलाते हैं, दूसरों को इन्द्र पदवी नहीं है, मेरुके समतल मूलसे ऊपर सात सौ नब्बे योजनकी ऊंचाई पर ताराओं के विमान हैं, वहां से दस योजनकी ऊंचाई पर सूर्यका विमान है, वहां से अस्सी योजनकी ऊंचाई पर चंद्र का विमान है, वहांसे चार योजनकी ऊंचाईपर नक्षत्रोंके विमान हैं. वहां से सोलह योजनपर दूसरे दूसरे ग्रहों के विमान हैं, तात्पर्य यह है कि मेरुके मूलकी सपाट भूमि से सातसौ नब्बे योजनके ऊपर एकसौ दस योजनों में ज्योतिष्क देव रहते हैं। अब वैमानिक देवों के स्थान कहते हैं; - सम्पूर्ण लोक-जिसे त्रिभुवन कहते हैं उसका आकार पुरुष के समान है और उसकी लम्बाई चौदह राजू है, नीचेकी सात राजुओं में सात नरक हैं। नाभिकी जगह - मध्य में मनुष्य लोक है। मेरु की। सपाट भमि से सात सौ नब्बे योजन पर ज्योतिष्क देवोंके विमान हैं, वहां से लगभग एक राजू ऊपर दक्षिण दिशा में सौधर्म देवलोक और उत्तर दिशा में ईशान देवलोक परस्पर जुड़े हुए हैं, वहांसे कुछ दूर ऊपर, दक्षिण में तृतीय देवलोक केनत्कुमार और उत्तर में चौधा देवलोक माहेन्द्र, एक दूसरेसे लगे हुए हैं, वहांसे ऊपर पांचवां ब्रह्मलोक, छठा लांतक, सातवां शुक्र, आठवां सहस्रार ये चार देवलोक,
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[ ३० ] कुछ कुछ अंतरपर, क्रमसे एकपर एक, ऐसी स्थिति में हैं; वहांसे कुछ ऊंचाई पर नववां अानत और दसवां प्राणत. दक्षिण और उत्तर में, एक दूसरे से लगे हुए हैं। वहांसे कुछ ऊंचाई पर, ग्यारहवां प्राणर
और बारहवां अच्युत, दक्षिण तथा उत्तर दिशाओं में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। प्रथम के पाठ देवलोकों के आठ इन्द्र हैं अर्थात् हर एक देवलोक का एक एक इन्द्र है; पर नववं और दसवें देवलोकका एक तथा ग्यारवें और बारहवें देवलोक का एक, इस प्रकार अन्तिम चार देवलोकों के दो इन्द्र है; प्रथम के पाठ मिलाने से कल्पोपपन्न वैमानि देवताओं के दस इन्द्र हुए । पुरुषाकार लोक के गले के स्थान में नववेयक हैं, वहाँ से कुछ ऊपर पाँच अनुत्तरविमान हैं । लोकरूप पुरुषके ललाट की जगह सिद्धशिला है, जो स्फटिक के समान निर्मल है, वहां से एक योजन पर लोक का अन्त होता है, लोक के अन्तिम भाग में सिद्ध जीवों का निवास है। अब तीन प्रकार के किल्विषिक देव तथा नव प्रकार के लोकान्तिकदेवों का निवासस्थान कहते हैं। प्रथम प्रकार के किल्बिषिकों की तीन पल्योपम आयु है ओर वे पहले तथा दूसरे देवलोक के नीचे रहते हैं। दूसरे प्रकार के किल्बिषिकों की श्रायु, तीन सागरोपम की है और वे तीसरे तथा चौथे देवलोक के नीचे रहते हैं। तीसरे प्रकार के किल्बिषिकों की आयु
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[ ३९ ]
तेरह सागरोपम है और वे पांचवें तथा छठे देवलोक के नीचे रहते हैं। ये सब किल्विषिक देव, चाण्डाल के समान, देवों में नीच समझे जाते हैं, लोकान्तिक देव, पाँचमें देवलोक के अन्त में उत्तरपूर्व के कोण में रहते हैं । चौसठ इन्द्रः - भवनपति देवों के बीस, व्यन्तरों के बत्तीस ज्योतिषियों के दो और वैमानिक देवों के दस सब की संख्या मिलाने पर इन्द्रों की चौसठ संख्या होती है ।
1
"जीवों के पाँचसौ तिरेसठ (५६३) भेद"
शास्त्र में देवों के १६८ भेद कहे हैं, उनकी इस तरह समझना चाहिये:- भवनपति के दस, चर ज्योतिष्क के पाँच, स्थिर ज्योंतिष्क के पाँच, वैताढ्य पर रहने वाले तिथक् जम्भक देवों के दस भेद, नरक के जीवों को दुःख देने वाले परमाधामी के पन्दरह भेद, व्यन्तर के आठ भेद, बानव्यन्तरके आठ भेद, किल्विषियों के तीन भेद, लोकान्तिक नव भेद, बारह देवलोकों के बारह भेद, नव ग्रैवेयकों के नव भेद, पांच अनुत्तर विमानों के पांच भेद सब मिला कर ६६ भेद हुए इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो भेद हैं, इस प्रकार १६८ भेद देवों के होते हैं। मनुष्यों के ३०३ भेद पहले कह चुके ।
अब तिर्यंच के ४८ भेद कहते हैं:- पांच सूक्ष्म स्थावर, पाँच बादर स्थावर, एक प्रत्येक वनस्पत्तिकाय और तीन विकलेन्द्रिय सब मिला कर चौदह
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[ ३२ ] हुए, ये चौदह पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के होते हैं, इस तरह अट्ठाइस हुए; जलचर, खेचर तथा स्थलचर के तीन भेदः - चतुष्पद, उरः परिसर्प तथा भुजपरिसर्प, ये प्रत्येक संमूच्छिम और गर्भज होने से दस भेद हुए; ये दसों पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के हैं, इसलिये बीस भेद हुए, इनमें पूर्वोक्त अट्ठाइस भेदों के मिलाने पर तिर्यञ्चों के ४८ भेद होते हैं।
नारक जीवों के सातभेद कह चुके हैं, वे पर्याप्त तथा अपर्याप्त रूप से दो तरह के हैं, इस तरह नारक जीवों के चौदह भेद होते हैं। देवोंके १६८, मनुष्यों के ३०३, तिर्यंचों के ४८ और नारकों के १४ भेद, इन सबको मिलाने से ५६३भेद, संसारी जीव के हुए ।
"अब सिद्ध जीवों के भेद कहते हैं "
सिद्धा पनरसभेया, तित्थ अतित्थाइ सिद्ध भेएणं । एए संखेवेणं, जीवविगप्पा समक्खाया ॥२५॥
(तित्थ अतित्थाइ सिद्ध भेएणं) तीर्थङ्कर - सिद्ध, अतीर्थङ्कर सिद्ध आदि भेदों से, (सिद्धा) सिद्धजीवों के ( पनरस भैया) पन्दरह भेद हैं, (संखेवेणं) संक्षेप से, (एए) ये पूर्वोक्त, (जीवविगप्पा ) जीवविकल्प - जीवों के भेद, (समक्खाया) कहे गये ||२५||
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[ ३३ ] भावार्थ-तीर्थकर-सिद्ध, अतीकर-सिद्ध मादि सिद्धों के पन्दरह भेद "नवतत्व में कहे हैं, उसे देख लेना चाहिये. संक्षेप में जीवों के भेद इस अन्ध में कहे गये हैं।
"अब आगे जो कहना है उसे खुद ग्रन्थकार
गाथा-द्वारा कहते हैं। एएसि जीवाणं, सरीरमाऊ-ठिई सकायमि । पाणा जोणिपमाणं, जेसिं जं अस्थि तं भणिमो।२६ ___ (एएसिं) इन-पूर्वोक्त (जीवाणं) जीवों के (सरीरं) शरीर-प्रमाण,(भाऊ) प्रायु-प्रमाण, (सकायंमि) स्वकाया में, (ठिई) स्थिति का प्रमाण अर्थात् खकायस्थिति-प्रमाण, (पाणा) प्राण-प्रमाण और (जोणिपमाणं) योनि-प्रमाण, (जेसिं) जिनके, (जं अत्थि) जितने हैं, (त) उसे,(भणिमों) कहते हैं ॥२६॥ ____ भावार्थ-पहले एकेन्द्रिय आदि जीव कहे गये हैं, उनके शरीर का प्रमाण, आयु का प्रमाण, खकायस्थिति का प्रमाण-एकेन्द्रियादिजीवों का मर कर फिर उसी काय में पैदा होना, 'खकायस्थिति' कहलाता है उसका प्रमाण प्राण-प्रमाण-दस प्राणों में से अमुक जीव को कितने प्राण हैं इसकी गिनती: योनि-प्रमाण-चौरासी लाख योनियों में से किन
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[ 38 ]
किन जीवों को कितनी कितनी योनियां हैं इस विषय की गिनती ; ये बातें आगे कही जायँगी ।
" पहले, शरीर प्रमाण कहते हैं ।"
।
अंगुलअसंखभागो, सरीरमेोगंदियाण सव्वेसिं । जोयणसहस्समहियं, नवरं पत्तेरुक्खाणं ॥२७॥
(सव्वेसिं) सम्पूर्ण (ऐगिंदियाण) एकेन्द्रियों का ( सरीरं ) शरीर (अंगुल असंभागो) उँगली के असंख्यातवें भाग जितना है, (नवरं ) लेकिन (पत्तेय - रुक्खाएं) प्रत्येक वनस्पतियों का शरीर, (जोयणसहस्समहियं) हज़ार योजन से कुछ अधिक है ||२७||
भावार्थ- सूक्ष्म तथा बादर पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों का शरीर प्रमाण, उँगली के असंख्यातवें भाग जितना है, लेकिन प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों का शरीर प्रमाण, हज़ार योजन से कुछ अधिक है; यह प्रमाण समुद्र के पद्मनाल का तथा ढाई द्वीप से बाहर की लताओं का है ।
"अब द्वीन्द्रिय आदि विकलेन्द्रिय जीवों का शरीर - प्रमाण कहते हैं "
बारस जोयण तिन्ने,
व गाउच्चा जोयणं च अणुकमसो ।
w
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[ ३५ ] बेइंदिय तेइंदिय,
चउरिदिय देहमुच्चत्तं ॥२८॥ (वेइंदिय) द्वीन्द्रिय, (तेइंदिय) त्रीन्द्रिय और (चउरिदिय) चतुरिन्द्रिय जीवों के, (देहमुञ्चत्तं) शरीरका प्रमाण, (अणुकमसो) क्रमसे (बारसजोयण) बारह योजन, (तिन्नेव गाउपा) तीन गव्यूत-तीन कोस-और (जोय) एक योजन है ॥२८॥ __भावार्थ-दीन्द्रिय जातिकेजीवों का शरीर-प्रमाण, अधिक से अधिक, बारह योजन हो सकता है, इससे अधिक नहीं। इसका मतलब किसी द्वीन्द्रिय जातिसे है,कुल द्वीन्द्रियों से नहीं; ऐसाहीत्रीन्द्रिय जीवों का शरीर-प्रमाण तीन कोस और चतुरिन्द्रिय जीवों शरीर-प्रमाण एक योजन है।
प्र०-योजन किसे कहते हैं ? उ०-चार कोस का एक योजन होता है। प्र०-गव्यूत किसे कहते हैं ? उ.-एक कोस को।
"अब नारक जीवों का शरीर-प्रमाण कहते हैं" धणुसयपंचपमाणा,नेरइया सत्तमाइपुढवीए । तत्तो अद्धभृणा, नेया रयणप्पहा जाव ॥२६॥
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[ ३६ ]
(सत्तमाइ) सातवीं (पुढवीए) पृथ्वी के (नेरइपा) नारक-जीव, ( धणुसयपंचपमाणा) पांच सौ धनुष प्रमाण के हैं, ( रणपहा जाव ) रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथ्वीतक, (तत्तो) उससे (अद्धधूणा) आधा आधा कम प्रमाण (नेया) समझना ॥ २६ ॥
भावार्थ - सातवें नरक के जीवों का शरीर - प्रमाण पाँचौ धनुष, छट्ठे नरक के जीवों का शरीरप्रमाण दाइसौ धनुष, पाँचवें नरक के जीवों का एक सौ पच्चीस धनुष, चौथे नरक के जीवों का साढ़े बासठ धनुष, तीसरे नरक के जीवों का सवा इकतीस धनुष, दूसरे नरक के जीवों का साढ़े पन्दरह धनुष और बारह अंगुल, तथा प्रथम नरक के जीवों का शरीरप्रमाण पौने आठ धनुष और छः अंगुल है, नारकों के उत्तरवैक्रिय शरीर का प्रमाण उक्त प्रमाण से दुगुना समझना चाहिये ।
प्र०-धनुष का क्या प्रमाण है ?
उ०-चार हाथ का एक धनुष समझना चाहिये ।
"पचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का शरीर प्रमाण ।” जोयणसहस्समाणा, मच्छा उरगा य गब्भया हुति धणुअ पुहुत्तं पक्खिसु, भुयचारी गाउअपुहुत्तं ॥३०॥ खयरा धणुअपुहुत्तं, भुयगा उरगा य जोयणपुहुत्तं । गाउअ पुहुत्तामत्ता, समुच्छिमाच उप्पया भणिया ३१
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[ ३७ ] (गम्भया) गर्भज, (मच्छा) मत्स्य-मछलियां, (य) (उरगा) सांप श्रादि,अधिक से अधिक, (जोय.
सहस्समाया) हजार योजन प्रमाण वाले (हुति) होते हैं. (पक्खिसु) पक्षियों में शरीर प्रमाण (धणुअपहुंत) धनुष-पृथक्त्व है तथा (भुयचारी) भुजचारी-भुजाओं से चलने वाले (गाउअपहत्तं) गव्यूत-पृथक्त्व प्रमाण शरीर के होते हैं ॥३०॥
(समुच्छिमा) सम्मूच्छिम (खयरा) खेचर जीव (भुयगा) और भुजाओं से चलने वाले जीव (धणुअपुहत) धनुष-पृथक्त्व-प्रमाण वाले होते हैं (य)
और (उरगा) सांप आदि (जोयण पुहत्तं) योजन पृथक्त्व शरीर-प्रमाण के होते हैं. (चउप्पया) चतुपद जीव (गाउपुहुत्तमित्ता)गव्यूत-पृथक्त्वमात्र (भणिया) कहे गये हैं ॥३१॥ ___ भावार्थ-गर्भज मत्स्य और सर्प का शरीर-मान एक हजार योजन का है। इस प्रकार के मत्स्य स्वय. म्भूरमण समुद्र में होते हैं तथा सर्प मनुष्य-क्षेत्र से बाहर होते हैं. गर्भज पक्षियों का शरीर-मान धनुष-पृथक्त्व है अर्थात् दो धनुष से लेकर नव धनुष तक है. गर्भज न्योला,गोह आदि भुजपरिसर्प जीवों का शरीर-मान,गव्यूत-पृथक्त्व है अर्थात् दो कोस से लेकर नव कोस तक है।
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[ ३८ ] सम्मूच्छिम खेचर तथा भुजपरिसर्प जीवों का शरीर-मान, धनुष-पृथक्त्व है. सम्मूच्छिम उर:परिसर्प जीवों का शरीर-मान, योजन-पृथक्त्व है. सम्मूच्छिम चतुष्पद-चार पैर वाले जीवों का शरीर-मान गव्यूत-पृथक्त्व है।
प्र० पृथक्त्व किसको कहते हैं ?
उ०- दो से लेकर नव तक की संख्या को पृथक्त्व कहते हैं ।
"गर्भज चतुष्पद तिर्यञ्च तथा मनुष्य का शरीर मान ।" छच्चैव गाउआई, चउप्पया गव्भया मुणेयव्वा । कोसतिगं च मणुस्सा, उक्कोस सरीरमाणेणं ॥३२॥
(चउप्पया गन्भया) चतुष्पद गर्भजेां का शरीरमान (छच्चेव गाउआई) बहः कोस का (मुणेपव्वा) जानना (च) और (मणुस्सा) मनुष्य (उक्कोससरीरमाणे) उत्कृष्ट शरीर-मान से (कोसतिगं) तीन कोस के होते हैं ||३२|
भावार्थ- देवकुरु आदि क्षेत्रों में चतुष्पद गर्भज हाथी का शरीर मान छः कोस का है तथा देवकुरु आदि के युगली मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई, अधिक से अधिक तीन कोस की होती है ।
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[ ३९ ] "देवों का स्वाभाविक शरीर-मान ।" ईसाणंत सुराणं,
रयणीओ सत्त हुंति उच्चत्तं । दुग-दुग-दुग-चउ-गेवि,
जणुत्तरे इक्किक्क परिहाणी ॥३३॥ (ईसाणंत) ईशानान्त-ईशान देवलोक तक के (सुराणं) देवताओं की (उच्चत्तं) ऊँचाई (सत्त) सात (रयणीओं) रस्नि-हाथ (हुति) होती है, (दुग-दुग दुग चउगेविजणुत्तरे) दो,दो, दो, चार, नवग्रैवेयक
और पांच अनुत्तरविमानों के देवों का शरीर-मान (इकिक परिहाणी) एक एक हाथ कम है ॥३३॥ ____ भावार्थ-दूसरा देवलोक ईशान है, वहां के देवों का तथा भवनपति, व्यन्तर,ज्योतिषी और सौधर्म देवों का शरीर सात हाथ ऊँचा है;सनत्कुमार और माहेन्द्र के देवों का शरीर छः हाथ ऊँचा है; ब्रह्म
और लान्तक के देवों का पांच हाथ, शुक्र और सहस्रार के देवों का चार हाथ; प्रानत, प्रामत, धारण और अच्युत इन चार देवलोकों के देवों का तोन हाथ; नववेयक के देवों का दो हाथ और पांचधनत्तर विमानवासी देवोंका एक हाथ ऊँचा है। ___ यहां जीवों का शरीर-मान उत्सेधांगुल से समझना चाहिये।
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होता है ।
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[ ४० ]
प्र० - उत्सेधांगुल किसको कहते हैं ?
उ०- माठ यवो का जवों का एक उत्सेधांगुल
BLA
"अब आयु प्रमाण कहते है ।" बावीसा पुढवीए, सत्तय आउस्स तिन्न वाउस्स वास सहस्सा दस तरु, गणाण तेऊ तिरत्ताऊ ३४
(पुढवीए) पृथ्वी काय जीवों की आयु (बावीसा ) बाईस हज़ार वर्ष की है (आउस्स) अष्काय जीवों की आयु (सत्तय) सात हज़ार वर्ष की (वाउस) वायुकाय जीवों की आयु ( तिन्नि) तीन हजार वर्ष की (तरुगलास) प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव समुदाय की आयु (वाससहस्सा दस) वर्ष सहस्र-दश अर्थात् दस हज़ार वर्ष की (ते) तेजः काय जीवों की (तरताऊ) तीन अहोरात्र की आयु है ||३४||
भावार्थ- पृथ्वी काय जीवों की अधिक से अधिक आयु - उत्कृष्ट आयु- बाईस हजार वर्ष; अपकाय जीवों की वायु सात हजार वर्ष; वायुकाय जीवों की तीन हजार वर्ष प्रत्येक वनस्पतिकाय जीवों की दस हजार वर्ष और तेजकाय जीवों की तीन अहोरात्र आयु है, यह तो हुई उत्कृष्ट आयु, लेकिन जघन्य आयु सबकी अन्तर्मुहूर्त की है ।
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[ ४९ ]
"द्वीन्द्रिय आदि जीवों का आयु प्रमाण ।" वासाणि बारसाऊ, बिइंदियाणं तिइंदियाणं तु । अउणा पन्न दिणाइ, चउरिंदीणं तु छम्मासा|३५|
(विइन्दिया) द्वीन्द्रिय जीवों की (उ) श्रायु (बारस) बारह (वासाणि) वर्ष की है, (तिइंदियातु) त्रीन्द्रिय जीवों की तो (उणा पन्न दिलाइ ) उनंचास दिन की आयु होती है (चउरिंदीपं तु) और चउरिन्द्रिय जीवों की आयु (मासा) बहः महीने की है ||३५||
भावार्थ- द्वीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष की, श्रीन्द्रियों की उनंचास दिन की और चतुरिन्द्रियकी छह महीने की है. यह सबकी उत्कृष्ट आयु है, जघन्य आय अन्तर्मुहूर्त की समझना चाहिये.
"चार प्रकार के पञ्चेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन गाथाओं से कहते है . " । सुर-नेरइयाण ठिई, उक्कोसा सागराणि तित्तीसं । चउपय- तिरिय-मणुस्सा, तिन्निय पलिवोवमा हुति (सुर-नेरइयाण) देव और नारक जीवों की (उक्कोसा) उत्कृष्ट - अधिक से अधिक (ठिई) स्थितिआयु (सागराणि तित्तीसं) तेतीस सागरोपम है. ( चउपय- तिरिय ) चार पैर वाले तिर्यञ्च और ( मणुस्सा) मनुष्यों की आयु (तिन्निय) तीन (पलिमा) पल्पोपम (हुति) है ||३६||
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A
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[ ४२ ] भावार्थ-देव और नरकवासी जीव, अधिक से अधिक, तेतीस सागरोपम तक जीते हैं और चतु. पद तिर्यञ्च तथा मनुष्य तीन पल्योपम तक, ये तिर्यश्च तथा मनुष्य देवकुर आदि क्षेत्रों के सम. झना चाहिये. देव तथा नारक जीवों की जघन्य श्रायु-कम से कम आयु-दस हजार वर्ष की है; मनुष्य तथा तिर्यश्च जीवों की जघन्य अाय, अन्तमुहूर्त की है। जलयर-उरभुयगाण,परमाऊ होइ पुव्वको डीऊ पक्खीणं पुण भणियो,असंखभागो अ पलियस्स
(जलयर-उरभुयगाणं) जलचर, उर परिस और भुजपरिसर्प जीवों की (परमाऊ) उत्कृष्ट आयु (पुव्वकोडीऊ) एक करोड़ पूर्व है, (पक्खीणं पुण) पक्षियों की आयु तो (पलियस्स)पल्योपमका (असंखभागो) असंख्यातवाँ भाग जितनी ( भणियो) कही है ॥३७॥
भावार्थ-गर्भज और सम्मूच्छिम ऐसे दो प्रकार के जलचर जीवों की तथा गर्भज, उर परिसर्प और भुजपरिसर्प जीवों की उत्कृष्ट अायु एक करोड़ पूर्व है; गर्भज पक्षियोंको आयु पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग जितनी है। सव्वे सुहुमा साहा,
रणा य संमुच्छिमा मणुस्सा य ।
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[ ४३ ]
उक्कोस जहन्न, अंतमुहुत्तं चिय जियंति ॥ ३८ ॥
(सब्बे) सम्पूर्ण (सुहुमा) पृथ्वीकाय आदि सूक्ष्म (घ) और (साहारणा) साधारण वनस्पतिकाय ( प ) और ( संमुच्छिमा मस्सा) संमूच्छिम मनुष्य (उक्कोस जहन्नेणं) उत्कृष्ट और जघन्य से (अंतमुहृत्तं चिय) अन्तर्मुहूर्त ही (जियंति) जीते हैं ||३८||
भावार्थ —— सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि जीव, सूक्ष्म और बादर साधारण वनस्पतिकाय के जीव और सम्मूर्छिम मनुष्य, उत्कर्ष से और जघन्य से सिर्फ़ अन्तर्मुहूर्त तक जीते हैं।
प्रश्न - पल्योपम किसको कहते हैं ?
उ०- असंख्य वर्षों का एक पल्योपम होता है । प्र०-- सागरोपम किसे कहते हैं ?
उ०- - दस कोड़ा कोड़ी पल्योपम का एक सागरोपम होता है ।
प्र० -- पूर्व किसको कहते हैं ?
उ०--सत्तर लाख, छप्पन हज़ार करोड़ वर्षों का एक पूर्व होता है ।
ओगाहणाउमाण, एवं संखेवओ समक्खायं । जे पुण इत्थ विसेसा, विसेस सुत्ताउ ते नेया ॥ ३९ ॥
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[ ४४ (एवं) इस प्रकार (ोगाहणाउयाण) अवगाहना-शरीर और श्रायु का मान (संखेवनो) संक्षेप से (समक्खायं) कहा गया (जे पुण इत्थ) यहाँ जो बातें (विसेसा) विशेष हैं, (विसेस सुत्ताउ) विशेष सूत्रों से (ते) उनको (नेया) जानना ॥३६॥ __ भावार्थ--देह-मान तथा आयु-मान के विषय में विशेष बातें जानना हों, तो "संग्रहणी', "प्रज्ञा. पना" आदि सूत्रों से जानना चाहिये ।
_"अब स्वकायस्थिति-द्वार कहते हैं।" एगिदिया य सव्वे, असंख उस्सप्पिणी सकायंमि उववजति चयंत अ, अणंतकाया अणंताओ॥४० ___ (सव्वे) सब (एगिंदिया) एकेन्द्रिय जीव (असंख उस्सप्पिणी) असंख्य उत्सर्पिणी तथा श्रवसर्पिणी तक (सकायंमि) अपनी काया में (उववजति) उत्पन्न होते हैं (अ) और (चयंति) मरते हैं; (अणंतकाया) अनन्तकाय जीव (अणंताश्रो) अनन्त उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिण तक ॥४०॥ ___ भावार्थ---पृथ्वी, आप, तेज, वायु और वनस्पति काय के जीव, उसी पृथ्वी श्रादि की अपनी काया में; असंख्य उत्सर्पिणी-प्रवसर्पिण तक पैदा होते तथा मरते हैं: अनन्तकाय के जीव तो उसी अपनी
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[ ४५ ]
काया में अनन्त उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी तक पैदा होते तथा मरते हैं ।
प्र० - उत्सर्पिणी किसको कहते हैं ?
उ०- - दस क्रोड़ा क्रोड़ी सागरोपम को एक उत्सर्पिणी तथा उतने की ही एक अवसर्पिणी होती है ।
" द्वीन्द्रिय आदि जीवों की स्वकाय स्थिति । " संखिज्जसमा विगला,
सत्तट्ट भवा पणिदि- तिरि-मणुया ।
उववज्जति सकाए,
नारय देवा अ नो चेव ॥४१॥
(विगला) विकलेन्द्रिय जीव (संखिजसमा ) संख्यात वर्षों तक (सकाए) अपनी काया में (उववज्जंति) पैदा होते हैं, (पणिदि- तिरि-मणुया) पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य (सत्तट्ठ भवा) सात-आठ भव तक, लेकिन ( नारय देवा) नारक और देव (नो चेत्र) नहीं ॥४१॥
भावार्थ - - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव, स्वकाया में संख्यात वर्षों तक पैदा होते तथा मरते हैं; पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्य लगातार सात तथा आठ भव करते हैं अर्थात् मनुष्य, लगातार सात-आठ वार, मनुष्य शरीर धारण कर
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[ ४६ ]
सकता है, इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च भी लेकिन देवता तथा नारक जीव मर कर फिर तुरन्त अपनी योनि में नहीं पैदा होते अर्थात् देव मर कर फिर तुरन्त देवयोनि में नहीं पैदा हो सकता। इस प्रकार नारक जीव मरकर तुरन्त नरक में नहीं पैदा होता । हाँ, एक दो जन्म दूसरी गतियों में बिता कर फिर देव या नरक-योनि में पैदा हो सकते हैं। इसी तरह देव मरकर तुरन्त नरक-योनि में नहीं जाता और नारक जीव मरकर तुरंत देव योनि में नहीं पैदा हो सकता ।
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"अब प्राण-द्वार कहते हैं ।"
दसहा जियाण पाणा,
इंदि - उसासाउ - जोगबलरूवा ।
एदिए चउरो,
विगले छ सत्त अद्वेव ॥ ४२ ॥
(जियाण) जीवों को (दसहा) दस प्रकार के (पाणा) प्राण होते हैं - (इंदि - उसासाउ - जोगबलख्वा) इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, आयु और योगबल रूप, (एगिंदिएस) एकेन्द्रियों को (चउरो) चार प्राण हैं, (विगलेसु) विक लेन्द्रियों को (छ सत्त भट्ठेब) छ, सात और चाठ ||४२||
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[ ४७ ] भावार्थ--प्राणोंकी संख्या दस हैं.-पाँच इन्द्रियाँ, श्वासोच्छास, आय,मनोबल, बचनपल और कायबल। इन दस प्रारमों में से चार-त्वचा, श्वासोच्छास, श्रायु और कायबल एकेन्द्रिय जीवों को होते हैं; दीन्द्रिय जीवों कोछःप्राण---त्वचा, रसना (जीभ), श्वासोच्छास,आयु,कायबल और बचनबल;त्रीन्द्रिय जीवों को सात प्राण-त्वचा, जीभ, नाक, श्वासोच्छास, आय, कायबल और बचनबल; चतुरिन्द्रिय जीवों को आठ प्राण-पूर्वोक्त सात, और आँख । असन्नि-सन्नि-पंचिं,
दिएसु नव दस कमेण बोधव्वा । तेहिं सह विप्पओगो,
जीवाणं भण्णए मरणं॥४३॥ (असन्नि सन्नि-पंचिंदिएस) असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों को ( कमेण ) क्रम से (नव दस) नव और दस प्राण (वोधना) समझना (तेहिं सह) उनके साथ (विप्पोगो) विप्रयोग वियोग,(जीवाण)जीवों का (मरण) मरण(भएणए) कहलाता है॥४३॥
भावार्थ--असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों को त्वचा, जीभ, नाक, आँख, कान, श्वासोच्छ्रास, आयु, कायषल
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[ ४८ ] और पचनवल ये नव प्राण होते हैं और संज्ञी पञ्चेद्रियों को पूर्वोक्त नव और मनोबल, ये दस प्राण कहे गये हैं, जिनको जितने प्राण कहे गये हैं, उन प्राणों के साथ वियोग होना ही उन जीवों का मरण कहलाता हैं। देव, नारक, गर्भज तिर्यञ्च तथा गर्भज मनष्य, ये संज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं। सम्मूच्छिम तिर्यञ्च और सम्मूछिम मनुष्य, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं। सम्मूञ्छिम मनुष्यों को मनोबल और वाकवल नहीं है, इसलिये उनके आठ प्राण, और श्वासोच्छास पर्याप्ति पूर्ण न होने के कारण सात प्राण होते हैं। "जीवों का प्राण-वियोग-रूप मरण कितने बार
हुआ है, सो कहते हैं " एवं अणोरपारे, संसारे सायरंमि भीमंमि । पत्तो अणंतखुत्तो, जीवेहि अपत्तधम्महि ॥
(अपत्तधम्मेंहिं) नहीं पाया है धर्म जिन्होंने ऐसे (जीवहिं) जीवों ने (अणोरपारे) आर-पार-रहित आदि-अन्त-रहित (भीममि) भयङ्कर (संसारसायरंमि) संसार रूप समुद्र में (एवं) इस प्रकार-प्राणवियोग-रूप मरण (अणंतखुत्तो) अनन्त वार (पत्तो) प्राप्त किया ॥४४॥
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[ ४९ ]
भावार्थ-संसार का आदि नहीं है, न अन्त है; अनंतबार जीव मर चुके हैं और आगे मरेंगे सुदैव से यदि उन्हें धर्म की प्राप्ति हुई तो जन्म मरण से छुटकारा होगा ।
"अब योनिद्वार कहते हैं ।"
तह चउरासी लक्खा,
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संखा जोणीण होइ जीवाण ।
पुढवाईण चउपह
पत्तेयं सत्त सत्तेव ॥४५॥
(जीवाणं) जीवों की (जोणीण) योनियों की ( संखा) संख्या (चउरासी लक्खा) चौरासी लाख (होइ ) है । ( पुढवाई चउरहं ) पृथ्वीकाय आदि चार की प्रत्येक की योनि - संख्या ( सत्त सत्तेव ) सात सात लाख है || ४५ ॥
भावार्थ - जीवों की चौरासी लाख योनियाँ हैं, यह बात प्रसिद्ध है । उसको इस प्रकार समझना चाहिये :- पृथ्वीकाय की सात लाख, अप्काय की सात लाख, तेजःकाय की सात लाख और वायुकाय की सात लाख योनियाँ हैं; सबको मिलाकर अट्ठाईस लाख हुई ।
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[ ५० ] प्रश्न-योनि किसको कहते हैं ?
उ.-पैदा होने वाले जीवों के जिस उत्पत्तिस्थान में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये चारों समान हों, उस उत्पत्ति-स्थान को उन सब जीवों की एक योनि कहते हैं।
दस पत्तेयतरूणं,
___ चउदस लक्खा हवंति इयरेसु । विगलिंदिएसु दो दो,
चउरो पंचिंदितिरियाणं ॥ ४६॥ (पत्तेयतरूणं) प्रत्येक वनस्पतिकाय की (दस) दस लाख योनियाँ हैं, ( इयरेसु) प्रत्येक वनस्प. तिकाय से इतर-साधारण वनस्पतिकाय की (चउदस लक्खा ) चौदह लाख (हवंति ) हैं। (विगलिंदिएसु) विकलेन्द्रियों की (दो दो) दो दो लाख हैं, (पंचिंदितिरियाणं)पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों की ( चउरो) चार लाख हैं॥४६॥
भावार्थ-प्रत्येक बनस्पतिकायकी दस लाख, साधारण वनस्पतिकायकी चौदह लाख, बीन्द्रिय की दो लाख, त्रीन्द्रियकी दो लाख, चतुरिन्द्रिय की दो लाख और पञ्चेन्द्रिय तियेंञ्चों की चार लाख योनियां हैं।
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[ ५९ ]
चउरो चउरो नारय, - सुरेस मणुआण चउदस हवंति ।
सपिंडिया य सव्वे,
चुलसी लक्खाउ जोणीणं ॥ ४७ ॥
( नारय सुरेसु ) नारक और देवों की ( चउरो चउरो ) चार चार लाख योनियां हैं; ( मणुण) मनुष्यां की ( चउदस ) चौदह लाख ( हवंति )
( सव्वे ) सब ( संपिंडिया ) इकट्ठी की जांयमिलाई जांय तो (जोणी ) योनियों की संख्या (चुलसी लक्खाउ) चौरासी लाख होती हैं ॥४७॥
भावार्थ - नारक जीवों की चार लाख, देवों की चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख योनियां हैं। योनियों की सब संख्या मिलाने पर चौरासी लाख होती है ।
"अब सिद्ध जीवों के विषय में कहते हैं।
ין
सिद्धारा नत्थि देहो,
न आउ कम्मं न पाण जोगीओ । साइ- अणंता तेसिं,
ठिई जिखिँदागमे भणिया ॥ ४८ ॥
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[ ५२ ]
( सिद्धा ) सिद्ध जीवों को ( देहो ) शरीर (नस्थि ) नहीं है, ( न आउ कम्मं ) आयु और कर्म नहीं है, (न पाण जोषीत्रो) प्राण और योनि नहीं है, (तेसिं) उनकी ( ठिई) स्थिति ( साइ
ता) सादि और अनन्त है; यह बात (जिणिदागमे) जैन सिद्धान्तों में (भषिया) कही गई है || ४८ || भावार्थ - सिद्ध जीवों को शरीर नहीं है इसलिये आयु और कर्म भी नहीं है, आयु के न होने से प्राण और योनि भी नहीं है, प्राण के न होने से मृत्यु भी नहीं है; उनकी स्थिति सादि-अनन्त है अर्थात् जब वे लोक के अग्र भाग पर अपने स्वरूप में स्थिति हुए, वह समय उनकी स्वरूपस्थिति का आदि है तथा फिर वहां से च्युत होना नहीं है इसलिये स्वरूप स्थिति अनन्त है; यह बात जैन सिद्धान्त में कही गई है ।
"फिर से संसारी जीवोंका स्वरूप कहते हैं"
काले अणाइनिहणे, जोणीगहणंमि भीसणे इत्थ । भमिया भमिहिति चिरं, जीवा जिणवयणमल हत ॥
(अाइ निह) आदि और अन्त रहित अर्थात् अनादि अनन्त ( काले ) काल में (जिएवयणं ) जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश रूप वचन को ( अलहंता ) न पाये हुए ( जीवा ) जीव; ( जोषी
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[ ५३ ] गहणंमि) योनियों से क्लेशरूप (भीसणे) भयकर (इत्थ ) इस संसार में (चिरं) बहुत काल तक (भमिया) भ्रमण कर चुके और (भमिहिंति) भ्रमण करेंगे ॥ ४६॥
भावार्थ-चौरासी लाख योनियों के कारण दुःखदायक तथा भयङ्कर इस संसार में, जिनेन्द्र भगवान् के बतलाये हुए मार्ग को न पाये हुए जीव, अनादि कालसे जन्ममरण के चक्कर में फंसे. हुए हैं तथा अनन्त काल तक फंसे रहेंगे। "अब ग्रन्थ कार अपना नाम सूचित करते हुए
धम्मोपदेश देते हैं, ता संपइ संपत्ते, मणुअत्ते दुल्लहे वि सम्मत्ते। सिरिसंतिसूरिसिठे,करेहभो उज्जमं धम्मे॥५०॥
(ता) इसलिये (संपद) इस समय (दुल्लहे) दुर्लभ ( मणुअत्ते ) मनुजत्व-मनुष्य जन्म और ( सम्मत्ते) सम्यक्त्व ( संपत्ते ) प्राप्त हुमा है तो ( सिठे ) शिष्ट-सज्जन पुरुषों से सेवित ऐसे (धम्मे ) धर्म में ( भो) अय प्राणियो! (उज्जम) उद्यम-पुरुषार्थ ( करेह ) करो, ऐसा ( सिरिसंतिसूरि) श्री शान्तिसूरि उपदेश देते हैं ॥ ५० ॥ ___ भावार्थ-जब कि संसार भयङ्कर है और चौरासी लाख योनियों के कारण उससे पार
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[ ५४ ] पाना मुश्किल ह और उचित सामग्री-मनुष्यजन्म और सम्यक्त्व-सच्ची श्रद्धा-भी प्राप्त हुई है इसलिये हे भव्य जीवो! प्रमाद न करके, महा पुरुषों ने जिस धर्म का सेवन किया है उसका तुम भी सेवन करो; क्योंकि बिना धर्म की सेवा किये तुम जन्म-मरण के जञ्जाल से नहीं छूट सकोगे। "इस प्रन्थ में जो कुछ जीवों के स्वरूप के विषय में कहा गया है
वह सिद्धान्त के अनुसार है" एसो जीववियारो, संखेवरुईण जाणणाहे । संखित्तो उद्धरिओ,रुद्दाओ सुयसमुद्दामो॥५१॥
(संखेवरईण ) संपरुचियों के-अल्पमतिओं के ( जाणणा हेउं ) जानने के लिये । ( रुद्दाओ) रुद्र-अतिविस्तृत (सुयसमुद्दाश्रो ) श्रुतसमुद्र से ( एसो) यह (जीववियारो) जीवविचार (संखित्तो) संप से (उद्धरित्रो) निकाला गया ॥५१॥ ___ भावार्थ-सिद्धान्तों में जीवों के भेद आदि विस्तार से कहे गये हैं इसलिये अल्प बद्धि वाले लाभ नहीं उठा सकते; उनके जानने के लिये संक्षेप में यह "जीवविचार" सिद्धान्त के अनुसार बनाया गया है, इसके बनाने में अपनी कल्पना को स्थान नहीं दिया गया।
जीवविचार समाप्त।
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री आत्मानन्द-जैन-पुस्तक-प्रचारक-मण्डल रोशन मुहल्ला, आगरा। + Serving JinShasan 077404 gyanmandir@kobatirth.org For Private And Personal Use Only