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[ ४९ ]
भावार्थ-संसार का आदि नहीं है, न अन्त है; अनंतबार जीव मर चुके हैं और आगे मरेंगे सुदैव से यदि उन्हें धर्म की प्राप्ति हुई तो जन्म मरण से छुटकारा होगा ।
"अब योनिद्वार कहते हैं ।"
तह चउरासी लक्खा,
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संखा जोणीण होइ जीवाण ।
पुढवाईण चउपह
पत्तेयं सत्त सत्तेव ॥४५॥
(जीवाणं) जीवों की (जोणीण) योनियों की ( संखा) संख्या (चउरासी लक्खा) चौरासी लाख (होइ ) है । ( पुढवाई चउरहं ) पृथ्वीकाय आदि चार की प्रत्येक की योनि - संख्या ( सत्त सत्तेव ) सात सात लाख है || ४५ ॥
भावार्थ - जीवों की चौरासी लाख योनियाँ हैं, यह बात प्रसिद्ध है । उसको इस प्रकार समझना चाहिये :- पृथ्वीकाय की सात लाख, अप्काय की सात लाख, तेजःकाय की सात लाख और वायुकाय की सात लाख योनियाँ हैं; सबको मिलाकर अट्ठाईस लाख हुई ।
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