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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २ ] कर उनसे बर्ताव करें-उनकोतकलीफन पहुँचावें। प्र०-यदि हम उनको सतावेंगे तो क्या होगा? उ०-वे भी हमें मतावेंगे-बदला लेंगे, इस वक्त कमजोर होने के सबब से बदला न ले सकेंग तो दूसरे जन्म में लेंगे। प्र०-भगवान् को भुवन-प्रदीप क्यों कहा ? उ० -जैसे दीपक घट पट आदि पदार्थों को प्रकाशित करता है वैसे भगवान् सारे संसार के पदार्थों को प्रकाशित करते हैं-खुद जानते हैं तथा समवसरण में औरों को उपदेश देते हैं-इसलिये उनको भुवनप्रदीप कहते हैं। प्र०-यहां अज्ञ किनको समझना चाहिये? उ०-जोलोग जीवके स्वरूप को नहीं जानते उनको। प्र०-पुराने प्राचार्य कौन हैं ? उ०-गौतम खामी, सुर्मा स्वामी आदि । "अब जीव के भेद कहते हैं" जीवा मुना संसा, रिणो य तसथावरा य संसारी । पुढवी-जल-जलण-वाऊ, वणस्सई थावरा नेया ॥२॥ १-शास्त्र का फरमान है कि-"पढमं नाणं तो दया, एवं चिटई सव्वसंजए। अन्नाणीकिंकाही ? किंवा नाहीय सेव पावगं ?" पहले ज्ञान होगा तब ही अहिंसा धर्म का पालन हो सकता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020410
Book TitleJivvichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Vrajlal Pandit
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1850
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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