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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४७ ] भावार्थ--प्राणोंकी संख्या दस हैं.-पाँच इन्द्रियाँ, श्वासोच्छास, आय,मनोबल, बचनपल और कायबल। इन दस प्रारमों में से चार-त्वचा, श्वासोच्छास, श्रायु और कायबल एकेन्द्रिय जीवों को होते हैं; दीन्द्रिय जीवों कोछःप्राण---त्वचा, रसना (जीभ), श्वासोच्छास,आयु,कायबल और बचनबल;त्रीन्द्रिय जीवों को सात प्राण-त्वचा, जीभ, नाक, श्वासोच्छास, आय, कायबल और बचनबल; चतुरिन्द्रिय जीवों को आठ प्राण-पूर्वोक्त सात, और आँख । असन्नि-सन्नि-पंचिं, दिएसु नव दस कमेण बोधव्वा । तेहिं सह विप्पओगो, जीवाणं भण्णए मरणं॥४३॥ (असन्नि सन्नि-पंचिंदिएस) असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों को ( कमेण ) क्रम से (नव दस) नव और दस प्राण (वोधना) समझना (तेहिं सह) उनके साथ (विप्पोगो) विप्रयोग वियोग,(जीवाण)जीवों का (मरण) मरण(भएणए) कहलाता है॥४३॥ भावार्थ--असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों को त्वचा, जीभ, नाक, आँख, कान, श्वासोच्छ्रास, आयु, कायषल For Private And Personal Use Only
SR No.020410
Book TitleJivvichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Vrajlal Pandit
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1850
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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