Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 36
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३३ ] भावार्थ-तीर्थकर-सिद्ध, अतीकर-सिद्ध मादि सिद्धों के पन्दरह भेद "नवतत्व में कहे हैं, उसे देख लेना चाहिये. संक्षेप में जीवों के भेद इस अन्ध में कहे गये हैं। "अब आगे जो कहना है उसे खुद ग्रन्थकार गाथा-द्वारा कहते हैं। एएसि जीवाणं, सरीरमाऊ-ठिई सकायमि । पाणा जोणिपमाणं, जेसिं जं अस्थि तं भणिमो।२६ ___ (एएसिं) इन-पूर्वोक्त (जीवाणं) जीवों के (सरीरं) शरीर-प्रमाण,(भाऊ) प्रायु-प्रमाण, (सकायंमि) स्वकाया में, (ठिई) स्थिति का प्रमाण अर्थात् खकायस्थिति-प्रमाण, (पाणा) प्राण-प्रमाण और (जोणिपमाणं) योनि-प्रमाण, (जेसिं) जिनके, (जं अत्थि) जितने हैं, (त) उसे,(भणिमों) कहते हैं ॥२६॥ ____ भावार्थ-पहले एकेन्द्रिय आदि जीव कहे गये हैं, उनके शरीर का प्रमाण, आयु का प्रमाण, खकायस्थिति का प्रमाण-एकेन्द्रियादिजीवों का मर कर फिर उसी काय में पैदा होना, 'खकायस्थिति' कहलाता है उसका प्रमाण प्राण-प्रमाण-दस प्राणों में से अमुक जीव को कितने प्राण हैं इसकी गिनती: योनि-प्रमाण-चौरासी लाख योनियों में से किन For Private And Personal Use Only

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