Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 57
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [ ५४ ] पाना मुश्किल ह और उचित सामग्री-मनुष्यजन्म और सम्यक्त्व-सच्ची श्रद्धा-भी प्राप्त हुई है इसलिये हे भव्य जीवो! प्रमाद न करके, महा पुरुषों ने जिस धर्म का सेवन किया है उसका तुम भी सेवन करो; क्योंकि बिना धर्म की सेवा किये तुम जन्म-मरण के जञ्जाल से नहीं छूट सकोगे। "इस प्रन्थ में जो कुछ जीवों के स्वरूप के विषय में कहा गया है वह सिद्धान्त के अनुसार है" एसो जीववियारो, संखेवरुईण जाणणाहे । संखित्तो उद्धरिओ,रुद्दाओ सुयसमुद्दामो॥५१॥ (संखेवरईण ) संपरुचियों के-अल्पमतिओं के ( जाणणा हेउं ) जानने के लिये । ( रुद्दाओ) रुद्र-अतिविस्तृत (सुयसमुद्दाश्रो ) श्रुतसमुद्र से ( एसो) यह (जीववियारो) जीवविचार (संखित्तो) संप से (उद्धरित्रो) निकाला गया ॥५१॥ ___ भावार्थ-सिद्धान्तों में जीवों के भेद आदि विस्तार से कहे गये हैं इसलिये अल्प बद्धि वाले लाभ नहीं उठा सकते; उनके जानने के लिये संक्षेप में यह "जीवविचार" सिद्धान्त के अनुसार बनाया गया है, इसके बनाने में अपनी कल्पना को स्थान नहीं दिया गया। जीवविचार समाप्त। For Private And Personal Use Only

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