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( सिद्धा ) सिद्ध जीवों को ( देहो ) शरीर (नस्थि ) नहीं है, ( न आउ कम्मं ) आयु और कर्म नहीं है, (न पाण जोषीत्रो) प्राण और योनि नहीं है, (तेसिं) उनकी ( ठिई) स्थिति ( साइ
ता) सादि और अनन्त है; यह बात (जिणिदागमे) जैन सिद्धान्तों में (भषिया) कही गई है || ४८ || भावार्थ - सिद्ध जीवों को शरीर नहीं है इसलिये आयु और कर्म भी नहीं है, आयु के न होने से प्राण और योनि भी नहीं है, प्राण के न होने से मृत्यु भी नहीं है; उनकी स्थिति सादि-अनन्त है अर्थात् जब वे लोक के अग्र भाग पर अपने स्वरूप में स्थिति हुए, वह समय उनकी स्वरूपस्थिति का आदि है तथा फिर वहां से च्युत होना नहीं है इसलिये स्वरूप स्थिति अनन्त है; यह बात जैन सिद्धान्त में कही गई है ।
"फिर से संसारी जीवोंका स्वरूप कहते हैं"
काले अणाइनिहणे, जोणीगहणंमि भीसणे इत्थ । भमिया भमिहिति चिरं, जीवा जिणवयणमल हत ॥
(अाइ निह) आदि और अन्त रहित अर्थात् अनादि अनन्त ( काले ) काल में (जिएवयणं ) जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश रूप वचन को ( अलहंता ) न पाये हुए ( जीवा ) जीव; ( जोषी
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