Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 39
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३६ ] (सत्तमाइ) सातवीं (पुढवीए) पृथ्वी के (नेरइपा) नारक-जीव, ( धणुसयपंचपमाणा) पांच सौ धनुष प्रमाण के हैं, ( रणपहा जाव ) रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथ्वीतक, (तत्तो) उससे (अद्धधूणा) आधा आधा कम प्रमाण (नेया) समझना ॥ २६ ॥ भावार्थ - सातवें नरक के जीवों का शरीर - प्रमाण पाँचौ धनुष, छट्ठे नरक के जीवों का शरीरप्रमाण दाइसौ धनुष, पाँचवें नरक के जीवों का एक सौ पच्चीस धनुष, चौथे नरक के जीवों का साढ़े बासठ धनुष, तीसरे नरक के जीवों का सवा इकतीस धनुष, दूसरे नरक के जीवों का साढ़े पन्दरह धनुष और बारह अंगुल, तथा प्रथम नरक के जीवों का शरीरप्रमाण पौने आठ धनुष और छः अंगुल है, नारकों के उत्तरवैक्रिय शरीर का प्रमाण उक्त प्रमाण से दुगुना समझना चाहिये । प्र०-धनुष का क्या प्रमाण है ? उ०-चार हाथ का एक धनुष समझना चाहिये । "पचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का शरीर प्रमाण ।” जोयणसहस्समाणा, मच्छा उरगा य गब्भया हुति धणुअ पुहुत्तं पक्खिसु, भुयचारी गाउअपुहुत्तं ॥३०॥ खयरा धणुअपुहुत्तं, भुयगा उरगा य जोयणपुहुत्तं । गाउअ पुहुत्तामत्ता, समुच्छिमाच उप्पया भणिया ३१ For Private And Personal Use Only

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