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[ ४८ ] और पचनवल ये नव प्राण होते हैं और संज्ञी पञ्चेद्रियों को पूर्वोक्त नव और मनोबल, ये दस प्राण कहे गये हैं, जिनको जितने प्राण कहे गये हैं, उन प्राणों के साथ वियोग होना ही उन जीवों का मरण कहलाता हैं। देव, नारक, गर्भज तिर्यञ्च तथा गर्भज मनष्य, ये संज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं। सम्मूच्छिम तिर्यञ्च और सम्मूछिम मनुष्य, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं। सम्मूञ्छिम मनुष्यों को मनोबल और वाकवल नहीं है, इसलिये उनके आठ प्राण, और श्वासोच्छास पर्याप्ति पूर्ण न होने के कारण सात प्राण होते हैं। "जीवों का प्राण-वियोग-रूप मरण कितने बार
हुआ है, सो कहते हैं " एवं अणोरपारे, संसारे सायरंमि भीमंमि । पत्तो अणंतखुत्तो, जीवेहि अपत्तधम्महि ॥
(अपत्तधम्मेंहिं) नहीं पाया है धर्म जिन्होंने ऐसे (जीवहिं) जीवों ने (अणोरपारे) आर-पार-रहित आदि-अन्त-रहित (भीममि) भयङ्कर (संसारसायरंमि) संसार रूप समुद्र में (एवं) इस प्रकार-प्राणवियोग-रूप मरण (अणंतखुत्तो) अनन्त वार (पत्तो) प्राप्त किया ॥४४॥
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