Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३९ ] तेरह सागरोपम है और वे पांचवें तथा छठे देवलोक के नीचे रहते हैं। ये सब किल्विषिक देव, चाण्डाल के समान, देवों में नीच समझे जाते हैं, लोकान्तिक देव, पाँचमें देवलोक के अन्त में उत्तरपूर्व के कोण में रहते हैं । चौसठ इन्द्रः - भवनपति देवों के बीस, व्यन्तरों के बत्तीस ज्योतिषियों के दो और वैमानिक देवों के दस सब की संख्या मिलाने पर इन्द्रों की चौसठ संख्या होती है । 1 "जीवों के पाँचसौ तिरेसठ (५६३) भेद" शास्त्र में देवों के १६८ भेद कहे हैं, उनकी इस तरह समझना चाहिये:- भवनपति के दस, चर ज्योतिष्क के पाँच, स्थिर ज्योंतिष्क के पाँच, वैताढ्य पर रहने वाले तिथक् जम्भक देवों के दस भेद, नरक के जीवों को दुःख देने वाले परमाधामी के पन्दरह भेद, व्यन्तर के आठ भेद, बानव्यन्तरके आठ भेद, किल्विषियों के तीन भेद, लोकान्तिक नव भेद, बारह देवलोकों के बारह भेद, नव ग्रैवेयकों के नव भेद, पांच अनुत्तर विमानों के पांच भेद सब मिला कर ६६ भेद हुए इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो भेद हैं, इस प्रकार १६८ भेद देवों के होते हैं। मनुष्यों के ३०३ भेद पहले कह चुके । अब तिर्यंच के ४८ भेद कहते हैं:- पांच सूक्ष्म स्थावर, पाँच बादर स्थावर, एक प्रत्येक वनस्पत्तिकाय और तीन विकलेन्द्रिय सब मिला कर चौदह For Private And Personal Use Only

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