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द्वीपका आधा भाग, इनको ढाईद्वीप कहते हैं, इस ढाई द्वीप में ही मनुष्य पैदा होते हैं तथा मरते हैं, इसलिये इसको 'मनुष्यक्षेत्र' कहते हैं, इसका परिणाम पैंतालोस लाख योजन है। अकर्मभूमि और अन्तद्वीपमें जो मनुष्य रहते हैं, उन्हें 'युगलिया' कहते हैं, इसका कारण यह है कि स्त्री-पुरुषका युग्म-जोड़ा-साथ ही पैदा होता है और उनका वैवाहिक सम्बन्ध भी परस्पर ही होता है इनकी ऊंचाई आठसौ धनुषकी; और आयु, पल्योपमका श्रसंख्यातवां भाग जितनी है. पन्दरह कर्मभूमियां, तीस अकर्मभूमियां और छप्पन अन्तद्वीप, इन सबको मिलाने से एकसौ एक मनुष्य भूमियां हु इनमें पैदा होने से मनुष्यों के भी उतनेही भेद हुए. इन के भी पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो भेद हैं, इसलिये दो सौ दो भेद हुए. इन गर्भज मनुष्यों के मल, मूत्र, कफ आदि में जो मनुष्य पैदा होते हैं, वे संमूच्छिम कहलाते हैं तथा वे अपनी पर्याप्तिपूरी किये बिनाही मर जाते हैं; इनके संमूच्छिम मनुष्य के एकसौ एक भेदों के साथ दोसौ दोको मिलाने से मनुष्योंके तीन सौ तीन भेद होते हैं.
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'अब चार प्रकार के देवताओंके भेद कहते हैं."
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दसहा भवणाहिवई, विहा वाणमंतरा हुंति । जोइसिया पंचविहा, दुविहा वेमाणिया देवा ॥ २४॥
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