Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 31
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २८ ] नीचे एक हजार योजन पृथ्वीको छोड़कर बाकी के एकलाख अठहत्तर हजार योजनमें पूर्वोक्त तेरह प्रतर हैं, जिनमें कि दस प्रकार के भवनपति देव रहते हैं, ऊपर के बचे हुए एक हजार योजन में सौ योजन ऊपर, और सौ योजन नीचे छोड़ दिये जाने पर बाकी आठसौ योजन बचे, उनमें आठ व्यंतर निकायहैं। प्रत्येक निकायमें, भवनपति निकाय की तरह, दक्षिणमें एक, और उत्तरमें एक, ऐसे दो इंद्र रहते हैं. इस तरह अाठ व्यंतर निकायके सोलह इंद्र हुए. ऊपर जो सौ योजन छोड़ दिये गये थे, उनमें से दस योजन ऊपर, और दस योजन नीचे छोड दिये जाने पर अस्सी योजन बचे, उनमें पाठ प्रकार के वाणमन्तर देव रहते हैं। प्रत्येक निकायमें पहलेको तरह एक दक्षिण में, और एक उत्तरमें ऐसे दो इंद्र रहते हैं, इस प्रकार पाठ निकायोंके सोलह इंद्र हुए. दोनों प्रकार के व्यंतरोंके बत्तीस इंद्र हुए। इनमें भवनपतिके बीस इंद्रोंके मिलानेपर बावन इंद्र हुए. अब ज्योतिष्क देवोंके रहने की जगह कहते हैं पहले ज्योतिष्क देवोंके पांच भेद कह चुके हैं उनके और भी दो भेद हैं, एक 'चर' और दूसरे 'स्थिर'; मनुष्य क्षेत्र में जो ज्योतिष्क देव हैं, वे चर हैं, अर्थात् हमेशा घमते रहते हैं और मनष्य लोक से बाहर के ज्योतिष्क देव स्थिर हैं अर्थात् उनके विमान एकही जगह रहते हैं, जहां पर कि वे हैं। चंद्र, सूर्य, For Private And Personal Use Only

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