Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १२ ] लिये, (सुए) श्रुति में - शास्त्र में, (एयं) यह (लक्खणं) लक्षण, (भणियं ) कहा है ॥ ११ ॥ भावार्थ -नव और दस की गाथाओं में जो अनन्तकाय के भेद गिनाये हैं, उनसे भी अधिकभेद हैं, उन सबको समझाने के लिये सिद्धान्त में अनन्तकाय का लक्षण कहा है । "अनन्तकाय का लक्षण ।" गूढसिरसंधिपव्वं, समभंग- महीरंग च छिन्नरुहं । साहारणं सरीरं, तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥ १२ ॥ जिनकी (सिर) नसें, ( संधि) सन्धियां, और (पव्वं पर्व - गांठें (गूढ़) गप्त हों-देखने में न आवें, (समभंग) जिनको तोड़ने से समान टुकड़े हों, (अहीर गं) जिनमें तन्तु न हों, (छिन्नरुहं) जो काटनेपर भी ऊगें ऐसी बनस्पतियां - फल, फूल, पत्ते, मूलियां आदि, (साहारणं) माधारण, ( सरीरं ) शरीर है ( तव्विवरी च ) और उससे विपरीत, (पत्तेयं ) प्रत्येकवनस्पतिकाय है ॥१२॥ भावार्थ अनन्तकाय वनस्पति उसको समझना चाहिये "जिस वनस्पतिमें नसें, सन्धियां और गांठें न हों; जिसको तोड़ने से समान भाग हो; जिसमें For Private And Personal Use Only

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