Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १६ ] मेहरि-किमि-पूयरगा, बेइंदिय माइवाहाई ॥ १५ ॥ (संख) शङ्ख-दक्षिणावर्त श्रादि, (कवड्डय) कपर्दक-कौड़ी, (गडुल) गण्डोल पेटमें जो मोटे कृमि मल्हपपैदाहोने हैं, (जलोय) जलौका-जोंक, (चंदणग) चन्दनक-अक्ष-जिसके निर्जीव शरीर को साधु लोग स्थापनाचार्यमें रखते हैं, (अलम) भूनाग जो वर्षा ऋतुमें सांप सरीखे लंबे लाल रंगके जोव पैदा होते हैं, (लहगाई) लहक-लालीयक-जो बासी रोटी आदि अन्न में पैदा होते हैं, (मेहरि)काष्ट के कीड़े, (किमि) कृमि-पेटमें, फोड़ेमें तथा बवामीर आदिमें पैदा होते हैं, (पूयरगा) पूनरक-पानी के कीड़े, जिनका मुंह काला और रंग लाल वा श्वेत-प्राय होता है, (माहवाहाई) मातृवाहिका-जिसकी गुजरात में अधिकता है और वहां के लोग चूडेल कहते हैं, इत्यादि (बेइन्दिय) द्वीन्द्रिय जीव हैं ॥१५॥ भावार्थ--जिन जीवों के त्वचा ओर जीभ हो, दूमरी इन्द्रियां न हों, वे जीव द्वीन्द्रिय कहलाते हैं, जैसे शंख कौड़ी, पेट के जीव, जोंक, अक्ष, भूनाग, लालीयक, काष्टकीट, कृमि, पूतरक और मातृवाहिका श्रादि। For Private And Personal Use Only

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