Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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२० ]
[ कर्म सिद्धान्त
नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष को ही विश्व-वैचित्र्य का कारण माना है, कर्म को नहीं।
जो विद्वान् यह मानते हैं कि वेदों-संहिता ग्रंथों में कर्मवाद का वर्णन है, उनका कहना है कि वेदों में "कर्मवाद या कर्मगति" आदि शब्द भले ही न हों किन्तु उनमें कर्मवाद का उल्लेख अवश्य हुआ है । ऋग्वेद संहिता के निम्न मंत्र इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं-शुभस्पतिः (शुभकर्मों के रक्षक), धियस्पतिः (सत्कार्यों के रक्षक), विचर्षणिः तथा विश्वचर्षणिः (शुभ और अशुभ कर्मों के द्रष्टा), "विश्वस्य कर्मणो धर्ता" (सभी कर्मों के आधार) आदि पद देवों के विशेषणों के रूप में व्यवहृत हुए हैं। कितने ही मंत्रों में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि शुभ कर्म करने से अमरत्व की उपलब्धि होती है । कर्मों के अनुसार ही जीव अनेक बार संसार में जन्म लेता है और मरता है। वामदेव ने अपने अनेक पूर्व भवों का वर्णन किया है। पूर्वजन्म के दुष्कृत्यों से ही लोग पाप कर्म में प्रवृत्त होते हैं- आदि उल्लेख वेदों के मंत्रों में हैं। पूर्वजन्म के पाप कृत्यों से मुक्त होने के लिए ही मानव देवों की अभ्यर्थना करता है। वेदमंत्रों में संचित और प्रारब्ध कर्मों का भी वर्णन है । साथ ही देवयान और पितृयान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि श्रेष्ठ कर्म करने वाले लोग देवयान से ब्रह्मलोक को जाते हैं और साधारण कर्म करने वाले पितयान से चन्द्रलोक जाते हैं। ऋग्वेद में पूर्वजन्म के निकृष्ट कर्मों के भोग के लिए जीव किस प्रकार वृक्ष, लता
आदि स्थावर शरीरों में प्रविष्ट होता है, इसका वर्णन है। "मा वो भुजेमान्यजातमेनो", "मा वा एनो अन्यकृतं भुजेम" आदि मंत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि एक जीव दूसरे जीव के द्वारा किये गये कर्मों को भी भोग सकता है और उससे बचने के लिए साधक ने इन मंत्रों में प्रार्थना की है। मुख्य रूप से जो जीव कर्म करता है वही उसके फल का उपभोग भी करता है, पर विशिष्ट शक्ति के प्रभाव से एक जीव के कर्मफल को दूसरा भी भोग सकता है।
उपयुक्त दोनों मतों का गहराई से अनुचिन्तन करने पर ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है कि वेदों में कर्म सम्बन्धी मान्यताओं का पूर्ण रूप से प्रभाव तो नहीं है, पर देववाद और यज्ञवाद के प्रभुत्व से कर्मवाद का विश्लेषण एकदम गौण हो गया है । यह सत्य है कि कर्म क्या है, वे किस प्रकार बंधते हैं और किस प्रकार प्राणी उनसे मुक्त होते हैं आदि जिज्ञासाओं का समाधान वैदिक संहिताओं में नहीं है । वहाँ पर मुख्य रूप से, यज्ञकर्म को ही कर्म माना है और कदम-कदम पर देवों से सहायता के लिए याचना की है। जब यज्ञ और देव की अपेक्षा कर्मवाद का महत्त्व अधिक बढ़ने लगा, तब उसके समर्थकों ने उक्त दोनों वादों का कर्मवाद के साथ समन्वय करने का प्रयास किया और यज्ञ से ही समस्त फलों की प्राप्ति स्वीकार की। इस मन्तव्य का दार्शनिक रूप मीमांसा दर्शन है। यज्ञ विषयक विचारणा के साथ देव विषयक विचारणा का भी विकास हुआ।
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