Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन ]
[ १६ कार्य-कारण भाव की व्यवस्था ही निरर्थक हो जायगी। फलस्वरूप हम भूतों को भी किसी कार्य का कारण मानने के लिए बाध्य नहीं होंगे। ऐसी स्थिति में किसी कार्य के कारण की अन्वेषणा करना भी निरर्थक होगा। इसलिए जड़
और चेतन इन दो प्रकार के तत्त्वों की सत्ता मानते हुए कर्म-मूलक विश्वव्यवस्था मानना तर्क संगत है । कर्म अपने नैसर्गिक स्वभाव से अपने आप फल प्रदान करने में समर्थ होता है ।
कर्मवाद की ऐतिहासिक समीक्षा :
ऐतिहासिक दृष्टि से कर्मवाद पर चिन्तन करने पर हमें सर्वप्रथम वेदकालीन कर्म सम्बन्धी विचारों पर चिंतन करना होगा। उपलब्ध साहित्य में वेद सबसे प्राचीन हैं । वैदिक युग में महर्षियों को कर्म सम्बन्धी ज्ञान था या नहीं ? इस पर विज्ञों के दो मत हैं । कितने ही विज्ञों का यह स्पष्ट अभिमत है कि वेदों-संहिता ग्रन्थों में कर्मवाद का वर्णन नहीं पाया है, तो कितने ही विद्वान् यह कहते हैं कि वेदों के रचयिता ऋषिगरण कर्मवाद के ज्ञाता थे।
जो विद्वान् यह मानते हैं कि वेदों में कर्मवाद की चर्चा नहीं है उनका कहना है कि वैदिक काल के ऋषियों ने प्राणियों में रहे हए वैविध्य और वैचित्र्य का अनुभव तो गहराई से किया पर उन्होंने उसके मूल की अन्वेषणा अन्तरात्मा में न कर बाह्य जगत् में की। किसी ने कमनीय कल्पना के गगन में विहरण करते हुए कहा कि सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एक भौतिक तत्त्व है तो दूसरे ऋषि ने अनेक भौतिक तत्त्वों को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना । तीसरे ऋषि ने प्रजापति ब्रह्मा को ही सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना । इस तरह वैदिक युग का सम्पूर्ण तत्त्व चिन्तन देव और यज्ञ की परिधि में ही विकसित हुआ। पहले विविध देवों की कल्पना की गई और उसके पश्चात् एक देव की महत्ता स्थापित की गई। जीवन में सुख और वैभव की उपलब्धि हो, शत्रुजन पराजित हों अतः देवों की प्रार्थनाएँ की गईं और सजीव व निर्जीव पदार्थों की आहूतियाँ प्रदान की गईं। यज्ञ कर्म का शनैः शनैः विकास हुआ। इस प्रकार यह विचारधारा संहिता काल से लेकर ब्राह्मण काल तक क्रमश: विकसित हुई।
आरण्यक व उपनिषद् युग में देववाद व यज्ञवाद का महत्त्व कम होने लगा और ऐसे नये विचार सामने आये जिनका संहिताकाल व ब्राह्मणकाल में अभाव था । उपनिषदों से पूर्व के वैदिक साहित्य में कर्म विषयक चिन्तन का अभाव है पर प्रारण्यक व उपनिषदकाल में अदृष्ट रूप कर्म का वर्णन मिलता है। यह सत्य है कि कर्म को विश्व-वैचित्र्य का कारण मानने में उपनिषदों का भी एकमत नहीं रहा है । श्वेताश्वतर-उपनिषद् के प्रारम्भ में काल, स्वभाव,
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