Book Title: Jinendra Stuti Ratnakar
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
View full book text
________________
(११) अर्थः-विनयेंकरी युक्त अने प्रकाशवाला कीरणोना समूहोथी व्याप्त एवा सूर्य तथा चंइ ए बेदु देवें उत्त म नक्तिथी जे प्रनुनी पूजा करेली . वली प्रतापना घररूप, अनंतान बने गुरुरूपथी युक्त तथा का मदेवरूपी हाथीने मारवामां सिंह समान ते श्रीवीर जिन(श्रीवीरनगवान्)सर्वने सदाकल्याण आपो॥४॥ ॥ इति चतुर्विंशतिजिनस्तुतिनो बालावबोध संपूर्ण ॥
॥शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ आचार्यः परमे पदे बुधजनैराश्चर्यज ज्ञानवा, सोकानां परमप्रकाशकरणे सूर्योपमः शुध्धीः॥ शास्त्राब्जे गुणगौरवाव्यसुनगे पृथ्व्यां सदास्था पित,श्वात्माराम इति प्रकाशवदनै यात् स्वशिष्यैर्टतः ॥१॥
॥ गीति बंद ॥ लक्ष्मी विजयःशिष्य,स्तस्यानूज ज्ञानवान्सु धीः सम्यक् ॥ हंसविजय इति मतिमान्, शिष्यस्तस्यानवजुणैकनिधिः ॥ २ ॥

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85