Book Title: Jinendra Stuti Ratnakar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 38
________________ ( ३० ) ॥ २ ॥ तुम मुखचंद्र अमृतयोगें करी, मन मा दारुं न आणंद जयुं रे ॥ ति कारण दिलमां इम मानुं, पचरथी पण कठिण ठस्युं रे ॥ नं त० ॥ ३ ॥ समजाव्युं समजे नदी साहेब, श्वान पूब ज्युं वक्र वले रे ॥ चंचलता बहु एहनी दी से, बाल परें नही गम ठरे रे ॥ अनंत० ॥४॥ तुमें प्रभु मनडुं थिर करी लीधुं, कामण तो तु मैं शुं करि दीधुं ॥ तिम माहरूं करशो जो सा देब, तो मुऊ कारज सघलुं कीधुं ॥ अनंत० ॥ ॥ ५ ॥ तुम चरणांबुज राजदंस परें, जो मन मा दारुं वास करे रे । तो मुऊ संपद सघली साढ़े ब, तुम पसायथी आवी मले रे ॥ ० ॥ ६ ॥ ॥ अथ पंचदश श्रीधर्मनाथ जिनस्तवनं ॥ ॥ राग तुमरी ॥ महावीर चरण में जाय, मे रो मन लागि रह्यो । माहा॥ ए देश ॥ श्रीध मनाथ के पाय, मेरो मन लागि रह्यो ॥ श्री० ॥ ए की | कर जोडी कहुं हुं सुप साहेब, मि

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