Book Title: Jinendra Stuti Ratnakar
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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(५०) विशेष रे॥ चालो ॥४॥ मंगण ए अपूर्व मु निनु,तुमें पण धरजो सुजाण रे॥ जे नर ए आ नूषण धरशे,तस घर लक्ष्मीप्रधान ॥५॥इति॥
॥अथ गढूंली बीजी॥ ॥धन धन रे आतमराम, ढुंढकमत नष्टा लु ॥ ढुंढक नष्टालु ने नवोदधि तारु, वारु कर्म कुगर रे॥ तस मुनिवर, वरणन करतां, सु
जो सद नर नार ॥ ढुं० ॥ध० ॥१॥ ढुंढ कमत त्यागी करी रे, देश पंजाबनीमांह रे॥ राजनगरमां आवीया रे, धरवा सुगुरु सन्नाद ॥ढुंग॥धण॥२॥ प्रथम शिष्य तसु शोनता रे,ल दमी विजय मुनिसार रे॥वैरागी त्यागी खरा रे, झान तणा दातार ॥ ढुं० ॥ध॥३॥ अवनीत ल पावन गुरु करता, विचरे देश विदेश रे॥ संजम खप करता नमुं रे, एदवा मुनि सुविशे प॥ ढुं० ॥ध॥४॥ मेघध्वनि दीये देशना रे, धरी करुणा मनमांदी रे॥ जाणे सवि जग जीव

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