Book Title: Jinendra Stuti Ratnakar
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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ते राजायें रे मनमां चिंतवी रे, जावदीपकनो अना व ॥ इव्यदीपक रे त्यां प्रगटाविया रे, थयो दिवालि प्रनाव ॥ दी० ॥ ४ ॥ तेणें दिन करी रे नवि दीप मालिका रे, विधि जयणायें जिनहार ॥ तिमिर मि टावी रेनिज बातमतणुं रे, करे शिवलनी स्वीकार॥ ॥ अथ श्रीपाटण मंझण श्रीशांतिनाथ स्तवन शु६॥
॥अपने पदकुंतज कर चेतन, परमें फसनांना चाहियें ॥ ए चाल ॥ शांतिनाथ महाराजकुं प्राणी, हृदय कमल रखना चाहियें ॥ ए तरण तारण हे वचनरस, जिनजिका चखना चाहियें ॥शांति॥१॥ अन्यदेव कामी क्रोधीकुं, त्यागकें उर नरखना चाहि यें, कुग शांत वदन हे इसीकुं, आप जरुर देख नां चाहियें ॥ शांति ॥ २ ॥ पांचमा चक्री सो लमा स्वामी, देख हर्ष लेना चाहियें ॥ ए खटखम बंमी बने महा, योगी निरख लेना चाहियें ॥शांति ॥३॥ पाटण सहेर फोफलीया वाडे, नाथ उत्तख लेना चाहियें ॥ ए परमप्रनु हे इसीका, नामकुंले रखना चाहियें ॥ शांति ॥४॥ गुन नाव समतासें जिनका, रूप हृदय लिखना चाहियें ॥ हंसा तेरेकुं एसे जिन, जीका गुण सिखना चाहियें ॥५॥

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