Book Title: Jinendra Stuti Ratnakar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 71
________________ ( ५७ ) सवैया नीदरडी वेरण बे, जगतनी वेरणज, इव्यनाव नेदें, वीतरागनें बखानी हे ॥ यमकी दासी देख खा सी, प्रगटही देत फांसी, शुद्ध बुध सुखरासी, लुटणे कुं गनी हे ॥ जोगी जोगी ध्यानी ज्ञानी, सबकुं हे डुखखानी, तोबी प्यारी सारी हित, कारी जनजानी हे ॥ एसी जानी त्याग प्रानी, जेथी थाय सुख खानी, वरे शिव राणी जिन, वाणी ये वखाणी हे ॥ १ ॥ सऊनजन परमाद विदारी, हैयामां धरी हेत अनंत ॥ जो तुं नोला प्रायु बोहोला, तूटे कुण संधान करंत ॥ कुटुंब कबीला प्यारी कारण, पहेलें तो परमाद घरं त ॥ अंतकालमें कुछ नहिं बनता, ब्राह्मणिपरें संक्लेश लहंत ॥ २ ॥ ॥ न्यायांनो निधि बिरुदधारक महामुनि श्रीमदात्मा रामजी आनंद विजयजी माहाराजना प्रथम शिष्य मु नि लक्ष्मी विजयजी तेमना शिष्य मुनि हंस विजयजीयें या लघु ग्रंथनी रचना करी, ते गाम श्रीजामनगर नी हरजीजैनशाला तरफथी श्रावक अजरामर हरजी ये श्रीमुंबइमां श्रावक नीमसिंह माणकनी मारफत नि सागर बापखानामां बपावी प्रसिद्ध कस्यो ॥ शुनम् ॥

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