Book Title: Jinendra Stuti Ratnakar
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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(५१) में रे, करूं शासननी मांदि॥ ॥ध॥५॥ शिष्यममलने नणावता रे,काव्य तर्क ने कोश रे॥बंद शब्द सिझतना रे,ग्रंथ नलीमति दे त ॥ढुं॥ध॥६॥नो लोका तुमें सांनलो रे, त्यागी सकल प्रमाद रे ॥ मोदमार्ग सार थपति आव्या, पकडो एदना हाथ ॥ ढुंगाधन ॥७॥ निर्विघ्नं पहोंचाडशे रे, मोहनगरनी मां यी रे॥ एम जाणीने सेवजो रे, लोहकील जि म न्याय ॥ ढुं० ॥ ध० ॥ ७॥ एहवा मुनि गु ण गावतां रे,आवे गुण निज अंग रे॥ए गुरु पद सेवनयकी रे,पामो लमी सुरंग॥णाति॥
॥अथ गढूंली त्रीजी॥ ॥सुण प्राणी रे,मुनि मुखकमलें भ्रमरपरेंतुं रहेने॥ मुनिमुख वाणी, अमृतसरखी जाणी तुं सुणि ले ने ॥ ए टेक॥मुनि संयममा रहे रम ता, जेने काम कदाग्रह नथी गमता, एतो इंजी पांचने रहे दमता ॥ सुण प्रा०॥१॥तजी ना

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