Book Title: Jinendra Stuti Ratnakar
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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(१५) पो तुमें नवि शिर नामी रे॥संनव०॥ ॥से वकनो नछार करो प्रनु, राजहंस गतिगा मि रे॥ संनव० ॥५॥ इति ॥ ॥अथ चतुर्थ श्रीअनिनंदन जनस्तवनं ॥
॥मनदिमें वैरागी भरत जी ॥म ॥ए दे शी। अभिनंदनजिन वाणीरे,प्राणीसांनलो गुणनी खाणी ॥ जयवंती वरते ने जगमां, मि टयातिमिर मीटाणी॥ कठिण कर्म काटण का रण ए, सुंदर जेसी कृपाणी रे॥प्राणी ॥१॥ ए विण जन संसार नमे ,जेम घांचीनी घाणी ॥संशय सकल निवारण ए वली, नविजन साची जाणी रे॥ प्राणी ॥ अनि ॥२॥ दे व कुदेव न ते विण लहीयें, एम नाखे मुनि नाणी॥ सुगुरु कुगुरुना नेद विना नदी, शिव सुंदरी पटराणी रे॥प्राणी ॥ अनि ॥३॥ धर्म अधर्म ने अमृत विष सम, एक करो केम ताणी॥ तेहy जाणपणुं करीने तुमें, लहो शि

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